________________ बारहवां शतक : उद्देशक 2] [137 इन्द्रियवशात्तं जीवों का बन्धादिदुष्परिणाम 21. [1] सोइंदियवस? गं भंते ! जीवे किं बंधति ? एवं जहा कोवस? (स० 12 उ० 1 सु० 26) तहेव जाव अणुपरियट्टइ। [21-1 प्र.] भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रिय के वश आर्त (पीड़ित) बना हुआ जीव क्या बाँधता है ? इत्यादि प्रश्न / [21-1 उ.] जयन्ती ! जिस प्रकार क्रोध के वश आर्त बने हुए जीव के विषय में ( श. 12, उ. 1, सू. 26 में कहा गया) है, उसी प्रकार (यहाँ भी.) यावत् वह संसार में बार-बार पर्यटन करता है, (यहाँ तक कहना चाहिए / ) [2] एवं चक्खिदियवसदृ वि / एवं जाव फासिदियवस? जाव अणुपरियट्टइ / [21-2 उ.] इसी प्रकार चक्षुरिन्द्रिय-वशात बने हुए जीव के विषय में भी कहना चाहिए। इसी प्रकार यावत् स्पर्शेन्द्रियवशात बने हुए जीव के विषय में यावत् वह बार-बार संसार में पर्यटन करता है, (यहाँ तक कहना चाहिए)। विवेचन-पंचेन्द्रियवशात जीवों के दुष्कर्मबन्धादि परिणाम-प्रस्तुत सूत्र में क्रोधादिवशाल के बन्धादि परिणाम के अतिदेशपूर्वक श्रोत्रादिन्द्रियवशात के परिणाम का प्रतिपादन किया गया है। जयन्ती द्वारा प्रवज्याग्रहण और सिद्धिगमन 22. तए णं सा जयंती समणोवासिया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं एयमलैं सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्टा सेसं जहा देवाणंदाए (स० 9 उ० 33 सु० 17-20) तहेव पव्वइया जाव सव्वदुक्खप्पहीणा : सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति / बारसमे सए : बीनो उद्देसनो समत्तो / / 12.2 / / [22] तदनन्तर बह जयन्ती श्रमणोपासिका, श्रमण भगवान महावीर से यह (पूर्वोक्त) अर्थ (समाधान) सुन कर एवं हृदय में अवधारण करके हषित और सन्तुष्ट हुई, इत्यादि शेष समस्त वर्णन (श. 6, उ. 33, सू. 17.20 में कथित) देवानन्दा के समान है यावत जयन्ती श्रमणोपासिका प्रबजित हुई यावत् सर्व दुःखों से रहित हुई, (यहाँ तक कहना चाहिए।) हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है,—यों कह कर श्री गौतम स्वामी यावत् विचरण करते हैं / विवेचन--जयन्ती श्रमणोपासिका पर समाधान की प्रतिक्रिया-प्रस्तुत सूत्र में इस उद्देशक का उपसंहार करते हुए शास्त्रकार जयन्ती श्रमणोपासिका के मन पर अपनी शंकाओं के समीचीन समाधान को प्रतिक्रिया का वर्णन किया है। तीन मुख्य प्रतिक्रियाएँ प्रतिफलित होतो हैं-.. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org