________________ द्वितीय शतक : उशक-८ ] [235 250 उद्धं उच्चत्तेणं, प्रद्ध–१२५ विक्लमेणं !] प्रोवारियलेणं सोलस जोयणसहस्साई प्रायामविक्खंभेणं, पन्नासं जोयणसहस्साई पंच य ससाणउए जोयणसए किचिविसेसूणे परिक्खेवेणं, सम्वपमानं बेमाणियप्पमाणस्स पद्ध नेयम् / सभा सुहम्मा उसरपुरस्थिमेणं, जिणघर, ततो उपवायसभा हरमो अनिसेय० प्रलंकारो जहा विजयस्स / उववानो संकप्पो प्रभिसेय विभूसणा य ववसाम्रो / अच्चणियं सुहगमो वि य चमर परिवार इड्ढत्तं // 1 // / / बितीय सए अटुमो उद्देसो समत्तो // [1 प्र.] भगवन् ! असुरकुमारों के इन्द्र, और उनके राजा चमर की सुधर्मा-सभा कहाँ [1 उ.] गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मध्य में स्थित मन्दर (मेरु) पर्वत से दक्षिण दिशा में तिरछे असंख्य द्वीपों और समुद्रों को लांघने के बाद अरुणवर द्वीप पाता है / उस द्वीप की वेदिका के बाहिरी किनारे से प्रागे बढ़ने पर अरुणोदय नामक समुद्र पाता है / इस अरुणोदय समुद्र में बयालीस लाख योजन जाने के बाद उस स्थान में असुरकुमारों के इन्द्र, असुरकुमारों के राजा चमर का तिगिच्छकूट नामक उत्पात पर्वत है। उसकी ऊँचाई 1721 योजन है / उसका उद्वेध (जमीन में गहराई) 430 योजन और एक कोस है। इस पर्वत का नाप गोस्तुभ नामक आवासपर्वत के नाप की तरह जानना चाहिए / विशेष बात यह है कि गोस्तुभ पर्वत के ऊपर के भाग का जो नाप है, वह नाप यहाँ बीच के भाग का समझना चाहिए। (अर्थात-तिगिच्छकूट पर्वत का विष्कम्भ मूल में 1022 योजन है, मध्य में 424 योजन है और ऊपर का विष्कम्भ 723 योजन है। उसका परिक्षेप मूल में 3232 योजन से कुछ विशेषोन है, मध्य में 1341 योजन तथा कुछ विशेषोन है और ऊपर का परिक्षेप 2286 योजन तथा कुछ विशेषाधिक है।) वह मूल में विस्तृत है, मध्य में संकीर्ण (संकड़ा) है और ऊपर फिर विस्तृत है / उसके बीच का भाग उत्तम वज्र जैसा है, बड़े मुकुन्द के संस्थान का-सा आकार है / पर्वत पूरा रत्नमय है, सुन्दर है, यावत् प्रतिरूप है। वह पर्वत एक पद्मवरवेदिका से और एक वनखण्ड से चारों ओर से घिरा हुआ है। (यहाँ वेदिका और वनखण्ड का वर्णन करना चाहिए)। उस तिगिच्छकूट नामक उत्पातपर्वत का ऊपरी भू-भाग बहुत ही सम एवं रमणीय है। (उसका भी वर्णन यहाँ जान लेना चाहिए।) उस अत्यन्त सम एवं रमणीय ऊपरी भूमिभाग के ठीक बीचोबीच एक महान प्रासादावतंसक (श्रेष्ठ महल) है / उसकी ऊँचाई 250 योजन है और उसका विष्कम्भ 125 योजन है। (यहाँ उस प्रासाद का वर्णन करना चाहिए; तथा प्रासाद के सबसे ऊपर की भूमि (अट्टालिका) का वर्णन करना चाहिए।) पाठ योजन को मणिपोठिका है। (यहाँ चमरेन्द्र के सिंहासन का सपरिवार वर्णन करना चाहिए।) उस तिगिच्छकूट के दक्षिण की ओर अरुणोदय समुद्र में छह सौ पचपन करोड़, पैंतीस लाख, पचास हजार योजन तिरछा जाने के बाद नीचे रत्नप्रभापृथ्वी का 40 हजार योजन भाग अवगाहन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org