________________ पंचम शतक : उद्देशक-९] [517 बहुतों की अपेक्षा से यह कहा गया है कि पंचेन्द्रियतिर्यच, भवनपति, वागव्यन्तर एवं ज्योतिष्कदेव समय आदि कालविभाग को नहीं जानते / ' मान और प्रमाण का अर्थ-समय, प्रालिका आदि काल के विभाग हैं। इनमें अपेक्षाकृत सूक्ष्म काल 'मान' कहलाता है, और अपेक्षाकृत प्रकृष्ट काल 'प्रमाण' / जैसे—'मुहूर्त' मान है, मुहूर्त की अपेक्षा सूक्ष्म होने से 'लव' 'प्रमाण' है। लव की अपेक्षा स्तोक' प्रमाण है और स्तोक की अपेक्षा 'लव' मान है / इस प्रकार से 'समय' तक जान लेना चाहिए।' पाश्वपित्य स्थविरों द्वारा भगवान से लोक-सम्बन्धी शंका-समाधान एवं पंचमहाव्रत धर्म में समर्पण 14. [1] तेणं कालेणं तेणं समएणं पासावच्चिज्जा थेरा भगवंतो जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उबागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता समणस्स भगवनो महावीरस्स अदूरसामंते ठिच्चा एवं वदासी से नणं भते ! असंखेज्जे लोए, अणंता रातिदिया उपज्जिसु वा उप्पज्जंति वा उपज्जिस्संति वा?, विर्गाच्छसु वा विगच्छंति वा विच्छिस्संति वा ?, परित्ता रातिदिया उपज्जिसु वा उप्पज्जति वा उप्पज्जिस्संति वा ? विगच्छिंसु वा 3 ? हंता, प्रज्जो ! असंखेज्जे लोए, अणंता रातिदिया० तं चेव / [14-1 प्र.] उस काल और उस समय में पापित्य (पार्श्वनाथ भगवान के सन्तानीय शिष्य) स्थविर भगवन्त, जहाँ श्रमण भगवान् महावीर थे, वहाँ पाए। वहाँ आ कर बे श्रमण भगवान् महावीर से अदूरसामन्त (अर्थात्-न बहुत दूर और न बहुत निकट; अपितु यथायोग्य स्थान पर खड़े रह कर इस प्रकार पूछने लगे-भगवन् ! असंख्य लोक में क्या अनन्त रात्रि-दिवस उत्पन्न हुए हैं, उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होंगे; तथा नष्ट हुए हैं, नष्ट होते हैं और नष्ट होंगे ? अथवा परिमित (नियत परिमाण वाले) रात्रि-दिवस उत्पन्न हुए हैं, उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होंगे; तथा नष्ट हुए हैं, नष्ट होते हैं और नष्ट होंगे ? [14-1 उ.] हाँ, पार्यो ! असंख्य लोक में अनन्त रात्रि-दिवस उत्पन्न हुए हैं, उत्पन्न होते हैं, यावत् उपर्युक्त रूप सारा पाठ कहना चाहिए। [2] से केण?णं जाव विगच्छिस्संति वा ? से नूणं भे प्रज्जो ! पासेणं प्ररहया पुरिसादाणीएणं "सासते लोए वुइते अणादीए प्रणवदग्गे परित्ते परिवडे; हेट्ठा वित्थिण्णे, माझे संखित्ते, उपि विसाले, अहे पलियंकसंठिते, मज्झे बरवइरविगहिते, उप्पि उद्धमइंगाकारसंठिते / तसि च णं सासयंसि लोगंसि प्रणादियंसि प्रणवदग्गंसि परित्तसि परिचुडंसि हेढा वित्थिण्णंसि, मज्झे संखितंसि, 1. (क) भगवती सूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 247 (ख) 'मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयो नृलोके', 'तत्कृतः कालविभागः,' 'बहिरवस्थिताः' तत्वार्थ सूत्र अ. 4 सू. 14-15-16 / 2. भगवतीमूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 247 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org