________________ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र उसी प्रकार (भवनपति देवों, स्थावर जीवों, तीन विकलेन्द्रियों से ले कर) यावत् पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीवों तक के लिए कहना चाहिए। 12. [1] अस्थि णं मते ! मणुस्साणं इहगताणं एवं पण्णायति, तं जहा—समया ति वा जाव उस्सप्पिणी ति बा? हता, अस्थि / [12-1 प्र.) भगवन् ! क्या यहाँ (मनुष्यलोक में) रहे हुए मनुष्यों को इस प्रकार का प्रज्ञान होता है कि (यह) समय (है,) अथवा यावत् (यह) उत्सर्पिणीकाल (है) ? [12-1 उ.] हाँ, गौतम ! (यहाँ रहे हुए मनुष्यों को समयादि का प्रज्ञान) होता है / [2] से केण? गं० ? गोतमा ! इह तेसि माणं, इह तेसि पमाणं, इहं चेव तेसि एवं पण्णायति, तं जहा-समया ति वा जाय उस्सपिणी ति वा / से तेणढणं० / [12-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से (ऐसा कहा जाता है) ? [12-2 उ.] गौतम ! यहाँ (मनुष्यलोक में) उनका (समयादि का) मान है. यहाँ उनका प्रमाण है, इसलिए यहाँ उनको उनका (समयादि का) इस प्रकार से प्रज्ञान होता है, यथा-यह समय है, या यावत् यह उत्सर्पिणीकाल है / इस कारण से ऐसा कहा जाता है कि यहाँ रहे हुए मनुष्यों को समयादि का प्रज्ञान होता है / 13. वाणमंतर-जोतिस-वेमाणियाणं जहा नेरइयाणं / [13] जिस प्रकार नरयिक जीवों के विषय में कहा गया है, उसी प्रकार वागव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक देवों के (समयादिप्रज्ञान के) विषय में कहना चाहिए। विवेचन–चौबीस दण्डक के जीवों में समयादिकाल के ज्ञानसम्बन्धी प्ररूपणा–प्रस्तत चार सूत्रों (सू.१० से 13 तक) में नैरयिक से लेकर वैमानिक तक के जीवों में से कहाँ-कहाँ किन-किन जीवों को समयादि का ज्ञान नहीं होता, किनको होता है ? और किस कारण से ? यह निरूपण किया गया है। निष्कर्ष-चौबीस दण्डक के जीवों में से मनुष्यलोक में स्थित मनुष्यों के अतिरिक्त मनुष्यलोकबाह्य किसी भी जीव को समय प्रावलिका आदि का ज्ञान नहीं होता; क्योंकि वहाँ समयादि का मानप्रमाण नहीं होता है / समयादि की अभिव्यक्ति सूर्य की गति से होती है और सूर्य की गति मनुष्यलोक में ही है, नरकादि में नहीं। इसीलिए यहां कहा गया है कि मनुष्यलोक स्थित मनुष्यों को हो समयादि का ज्ञान होता है। मनुष्यलोक से बाहर समयादि कालविभाग का व्यवहार नहीं होता। यद्यपि मनुष्यलोक में कितने ही तियंच-पंचेन्द्रिय, भवनपति, वाणव्यन्तर, और ज्योतिष्कदेव हैं, तथापि वे स्वल्प हैं और कालविभाग के अव्यवहारी हैं, साथ ही मनुष्यलोक के बाहर वे बहुत हैं / अतः उन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org