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________________ पंचम शतक : उद्देशक-९ ] [ 515 रविकिरणादि का सम्पर्क नहीं होता, तब पदार्थज्ञान का अजनक होने से उनमें अशुभ पुद्गल होते हैं। भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के रहने के प्राश्रय (स्थान) आदि की भास्वरता के कारण वहाँ शुभ पुद्गल हैं, अतएव अन्धकार नहीं उद्योत है।' चौबीस दण्डकों में समयादि काल-ज्ञानसम्बन्धी प्ररूपरणा-- 14. [1] अस्थि णं भाते ! नेरइयाणं तत्थगयाणं एवं पण्णायति, तं जहा--समया ति वा प्रावलिया ति वा जावर प्रोसप्पिणी ति वा उस्सपिणी ति बा ? णो इग? सम?। [10-1 प्र.] भगवन् ! क्या वहाँ (नरकक्षेत्र में) रहे हुए नैयिकों को इस प्रकार का प्रज्ञान (विशिष्ट ज्ञान) होता है, जैसे कि-(यह) समय (है), पावलिका (है), यावत् (यह) उत्सपिणी काल (या) अवपिणी काल (है) ? [10-1 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ (शक्य) नहीं है। (अर्थात्-वहाँ रहे हुए नैरयिक जीवों को समयादि का प्रज्ञान नहीं होता / ) [2] से केण?णं जाब समया ति वा प्रावलिया ति वा जाव प्रोसप्पिणी ति वा उस्सप्पिणी तिवा? गोयमा ! इह तेसि माणं, इह तेसि पमाणं, इहं तेसि एवं पण्णायति, तं जहा–समया ति वा जाव उस्सप्पिणी ति वा / से तेगणं जाव नो एवं पण्णायति, तं जहा--समया ति वा जाव उस्सप्पिणी तिवा। [10-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से नरकस्थ नैरयिकों को समय, आवलिका, यावत् उत्सपिणी-अवपिणों काल का प्रज्ञान नहीं होता ? [10-2 उ.] गौतम ! यहाँ (मनुष्यलोक में) समयादि का मान है, यहाँ उनका प्रमाण है, इसलिए यहाँ (मनुष्य क्षेत्र में) उनका (समयादि का) ऐसा प्रज्ञान होता है कि यह समय है, यावत् यह उत्सपिणीकाल है, (किन्तु नरक में न तो समयादि का मान है, न प्रमाण है और न ही प्रज्ञान है।) इस कारण से कहा जाता है कि नरकस्थित नैरयिकों को इस प्रकार से समय, आवलिका यावत् उत्सपिणी-अवसर्पिणी-काल का प्रज्ञान नहीं होता। 11. एवं जाव पंचेदियतिरिक्खजोणियाणं / [11] जिस प्रकार नरकस्थित नैरयिकों के (समयादिप्रज्ञान के) विषय में कहा गया है; 1. भगवती मूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 247 2. यहाँ 'जाव' पद से लव, स्तोक, मूहर्त, दिवस, मास इत्यादि समस्त काल-विभागसूचक अवसर्पिणीपर्यन्त शब्दों का कथन करना चाहिए। 3. 'जाव' पद यहाँ समग्र प्रश्न बाक्य पुनः उच्चारण करने का सूचक हैं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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