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________________ 518] . | व्याख्याप्रप्तिसूत्र उपि विसालसि, अहे पलियंकसंठियंसि, माझे वरवइरविहियंसि, उपि उद्धमइंगाकारसंठियंसि प्रणता जीवघणा उपज्जित्ता उपज्जिता निलीयंति, परिता जीवघणा उपज्जित्ता उपज्जित्ता निलीयंति / से भूए उत्पन्ने विगते परिणए अजोवेहि लोक्कति, पलोक्कइ / जे लोक्कइ से लोए ? 'हंता, भगवं !' / से तेण?णं प्रज्जो! एवं वुच्चति असंखेज्जे तं चेव / [14-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से असंख्य लोक में अनन्त रात्रि-दिवस उत्पन्न यावत् नष्ट होंगे? [14-2 उ. हे पार्यो ! यह निश्चित है कि आपके (गुरुस्वरूप) पुरुषादानीय (पुरुषों में ग्राह्य), अर्हत् पार्श्वनाथ ने लोक को शाश्वत कहा है। इसी प्रकार लोक को अनादि, अनवदन (अनन्त), परिमित, अलोक से परिवृत (घिरा हुग्रा), नीचे विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त, और ऊपर विशाल, तथा नीचे पल्यंकाकार, बीच में उत्तम वज्राकार और ऊपर ऊर्ध्वमृदंगाकार कहा है। उस प्रकार के शाश्वत, अनादि, अनन्त, परित्त, परिवृत, नीचे विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त, ऊपर विशाल, तथा नीचे पल्यंकाकार, मध्य में उत्तमवज्राकार और ऊपर ऊर्ध्वमृदंगाकारसंस्थित लोक में अनन्त जीवधन उत्पन्न हो-हो कर नष्ट होते हैं और परित्त (नियत = असंख्य) जीवघन भी उत्पन्न हो-हो कर विनष्ट होते हैं। इसीलिए हो तो यह लोक भूत है, उत्पन्न है, विगत है, परिणत है। यह, अजीवों (अपनी सत्ता को धारण करते, नष्ट होते, और विभिन्न रूपों में परिणत होते लोक के अनन्यभूत पुद्गलादि) से लोकित-निश्चित होता है, तथा यह (भूत आदि धर्म वाला लोक) विशेषरूप से लोकित-निश्चित होता है। 'जो (प्रमाग से) लोकित-अवलोकित होता है, वही लोक है न ?' (पार्वापत्य स्थविर-) हाँ, भगवन् ! (वही लोक है / ) इसी कारण से, हे पार्यो ! ऐसा कहा जाता है कि असंख्य लोक में (अनन्त रात्रिदिवस"""""यावत् परिमित रात्रि-दिवस यावत् विनष्ट होंगे।) इत्यादि सब पूर्ववत् कहना चाहिए। [3] तप्पमिति च णं ते पासावच्चेज्जा थेरा भगवंतो समणं भगवं महावीरं पञ्चभिजाणंति 'सव्वष्णु सव्वदरिसि। [14-3] तब से वे पापित्य स्थविर भगवन्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामो को सर्वज्ञ और सर्वदर्शी जानने लगे। 15. [1] तए णं ते थेरा भगवंतो समणं भगवं महावीरं वंदति नमसंति, 2 एवं वदासीइच्छामो णं भते ! तुम्भं अंतिए चाउज्जामाप्रो धम्मालो पंचमहब्बइयं सप्पडिक्कमणं धम्म उवसंपज्जिताणं वितरित्तए। [15-1] इसके पश्चात् उन (पाश्र्वापत्य) स्थविर भगवन्तों ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके वे इस प्रकार बोले-'भगवन् चातुर्याम धर्म के बदले हम आपके समीप प्रतिक्रमण सहित पंचमहाव्रतरूप धर्म को स्वीकार करके विचरण करना चाहते हैं। 1. यहाँ 'लोक' के पूर्वसचित समग्र विशेषण कहने चाहिए / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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