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________________ पंचम शतक : उद्देशक-९] [519 [2] 'महासुहं देवाणुपिया ! मा पडिबंधं करेह / ' [15-2 भगवान्-] 'देवानुप्रियो ! जिस प्रकार आपको सुख हो, वैसा करो, किन्तु प्रतिबन्ध (शुभ कार्य में ढील या रुकावट) मत करो।' 16. तए णं ते पासावच्चिज्जा थेरा भगवंतो जाव' चरिमेहि उस्सासनिस्सासेहि सिद्धा जावरे सव्वदुक्खष्पहीणा, प्रत्थेगइया देवा दे क्लोगेसु उववन्ना। [16] इसके पश्चात् वे पाश्र्वापत्य स्थविर भगवन्त,....."यावत् अन्तिम उच्छ्वास-नि:श्वास के साथ सिद्ध हुए यावत् सर्वदुःखों से प्रहीया (मुक्त-रहित) हुए और (उनमें से) कई (स्थविर) देवलोकों में देवरूप में उत्पन्न हुए। विवेचन-पाचपत्य स्थविरों द्वारा भगवान से लोक-सम्बन्धी शंका-समाधान एवं पंचमहाव्रतधर्म में समर्पण प्रस्तुत तीन सूत्रों द्वारा शास्त्रकार ने पार्श्वनाथशिष्य स्थविरों के भगवान् महावीर के पास लोक सम्बन्धी शंका के समाधानार्थ आगमन से लेकर उनके सिद्धिगमन या स्वर्गगमन तक का वृत्तान्त प्रस्तुत किया है। पापित्य स्थविरों द्वारा कृत दो प्रश्नों का प्राशय-(१) स्थविरों द्वारा पूछे गए प्रथम प्रश्न का आशय यह है कि जो लोक असंख्यात प्रदेशवाला है, उसमें अनन्त रात्रि-दिवस (काल), कैसे हो या रह सकते हैं ? क्योंकि लोकरूप आधार असंख्यात होने से छोटा है और रात्रिदिवसरूप प्राधेय अनन्त होने से बड़ा है। अतः छोटे आधार में बड़ा आधेय कैसे रह सकता है ? (2) दूसरे प्रश्न का प्राशय यह है कि जब रात्रिदिवस (काल) अनन्त हैं, तो परित्त कैसे हो सकते हैं ? भगवान द्वारा दिये गए समाधान का प्राशय उपयुक्त दोनों प्रश्नों के समाधान का प्राशय यह है-एक मकान में हजारों दीपकों का प्रकाश समा सकता है, वैसे ही तथाविधस्वभाव होने से असंख्यप्रदेशात्मक लोक में अनन्त जीव रहते हैं। वे जीव, साधारण शरीर की अपेक्षा एक ही स्थान में, एक ही समय में, प्रादिकाल में अनन्त उत्पन्न होते हैं और अनन्त ही विनष्ट होते हैं। उस समय वह समयादिकाल साधारण शरीर में रहने वाले अनन्तजीवों में से प्रत्येक जीव में विद्यमान है, तथैव प्रत्येक शरीर में रहने वाले परित्त (परिमित) जीवों में से प्रत्येक जीव में विद्यमान है। क्योंकि वह समयादि काल में जीवों की स्थिति पर्यायरूप है। इस प्रकार काल अनन्त भी हया और परित्त भी हुया / इसी कारण से कहा गया----असंख्यलोक में रात्रिदिवस अनन्त भी हैं, परित भी / इसी प्रकार तीनों काल में हो सकता है। लोक अनन्त भी है, परित्त भी; इसका तात्पर्य भगवान् महावीर ने अपने पूर्वज पुरुषों में माननीय (आदानीय) तीर्थकर पाश्वनाथ के मत का ही विश्लेषण करते हुए बताया कि लोक शाश्वत एवं प्रतिक्षण स्थिर भी है और उत्पन्न, विगत (विनाशी) एवं परिणामी (निरन्वय विनाशी नहीं किन्तु विविधपर्यायप्राप्त) भी है / वह अनादि होते हुए भी अनन्त है। अनन्त (अन्तरहित) होते हुए भी प्रदेशों की अपेक्षा से परित्त (परिमित–प्रसंख्येय) है / 1. 'जाव' पद से यहाँ निर्वाणगामी मुनि का वर्णन करना चाहिए / 2. 'जाब' पद से यहाँ 'बुद्धा परिनिवडा' आदि पद कहने चाहिए / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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