________________ 520 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र बाद Frti साल अनन्त जीवधन और परित्त जीवघन–अनन्त जीवघन का अर्थ है-परिमाण से अनन्त अथवा जीवसन्तति की अपेक्षा अनन्त / जीवसंतति का कभी अन्त क्ष्मादि साधारण शरीरों की अपेक्षा तथा संतति की अपेक्षा जीव अनन्त हैं / वे अनन्तपर्याय-समूहरूप होने से तथा असंख्येयप्रदेशों का पिण्डरूप होने से घन कहलाते हैं / ये हुए अनन्त जीवधन / तथा प्रत्येक शरीर वाले भूत भविष्यत्काल की संतति की अपेक्षा से रहित होने से पूर्वोक्तरूप से परित्त जीवधन कहलाते हैं / चूकि अनन्त और परित्त जीवों के सम्बन्ध से रात्रि-दिवसरूप कालविशेष भी अनन्त और परित्त कहलाता है / इसलिए अनन्त जीवरूप लोक के सम्बन्ध से रात्रिदिवसरूप कालविशेष भी अनन्त हो जाता है और परित्त जीवरूप लोक के सम्बन्ध से रात्रिदिवसरूप कालविशेष भी परित्त हो जाता है। अतः इन दोनों में परस्पर विरोध नहीं है।' चातुर्याम एवं सप्रतिक्रमण पंचमहावत में अन्तर–सर्वथा प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान और बहिद्धादान का त्याग चातुर्याम धर्म है, और सर्वथा प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह से विरमण पंचमहाव्रत धर्म है। बहिद्धादान में मैथन और परिग्रह दोनों का समावेश हो जाता है / इसलिए इन दोनों प्रकार के धर्मों में विशेष अन्तर नहीं है / भरत और ऐरवत क्षेत्र के 24 तीर्थकरों में से प्रथम प्रौर अन्तिम तीर्थंकरों के सिवाय बीच के 22 तीर्थंकरों के शासन में तथा महाविदेह क्षेत्र में चातुर्याम प्रतिक्रमणरहित (कारण होने पर प्रतिक्रमण) धर्म प्रवृत्त होता है, किन्तु प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों के शासन में सप्रतिक्रमण पंचमहाव्रत धर्म प्रवृत्त होता है / १७–काबिहा णं भंते ! देवलोगा पण्णता ? गोयमा ! चाउम्विहा देवलोगा पणत्ता, तं जहा-भवणवासी-वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणियभएणं / भवणवासी बसविहा, बाणमंतरा अट्टविहा, जोइसिया पंचविहा, वेमाणिया दुविहा / [17 प्र. भगवन् ! देवगण कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [17 उ.] गौतम ! देवगण चार प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक के भेद से (चार प्रकार होते हैं / ) भवनवासी दस प्रकार के हैं / वाणव्यन्तर आठ प्रकार के हैं, ज्योतिष्क पांच प्रकार के हैं और वैमानिक दो प्रकार के हैं। विवेचन देवलोक और उसके भेव-प्रभेदों का निरूपण—प्रस्तुत सूत्र में देवगण के मुख्य चार प्रकार और उनमें से प्रत्येक के प्रभेदों का निरूपण किया गया है। देवलोक का तात्पर्य-प्रस्तुत प्रसंग में देवलोक का अर्थ देवों का निवासस्थान या देवक्षेत्र 1. (क) भगवती सूत्र अ. वृत्ति पत्रांक 248-249 (ख) भगवती हिन्दी विवेचन भा. 2 पृ. 925 2. (क) भगवती हिन्दी विवेचन भा. 2 पृ. 927, (ख) भगवती. अ. वत्ति. पत्रांक 249 (ग) सपडिक्कमणो धम्मो पुरिमस्स पच्छिमस्स य जिणस्स / मज्झिमगाण जिणाणं, कारणजाए पडिक्कमणं / (घ) मूल पाठ के इस उल्लेख से यह स्पष्ट है कि भगवान् महावीर एवं अर्हत् पार्श्वनाथ एक हो परम्परा के तीर्थकर हैं, यह तथ्य पावपित्य स्थविरों को ज्ञात न था। इसी कारण प्रथम साक्षात्कार में वे भगवान महावीर के पास प्राकर वन्दना-नमस्कार किये बिना अथवा विनय भाव व्यक्त किये बिना ही उनसे प्रश्न पूछते हैं। --जैनसाहित्य का बृहद् इतिहास भा. 1 पृ. 197 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org