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________________ 289] [व्याख्याप्राप्तिसूत्र या कम्पन) को 'योग' कहते हैं। वीर्यान्तरायकर्म के क्षयोपशमादि की विचित्रता के कारण योग के पन्द्रह भेद होते हैं, जिनका विवेचन आगे सू. 8 में किया जाएगा। किसी-किसी जीव का योग, दूसरे जीव की अपेक्षा जघन्य (अल्प) होता है और किसी जीव की अपेक्षा उत्कृष्ट होता है। जीवों के उपर्युक्त चौदह भेदों से सम्बन्धित प्रत्येक के जघन्य और उत्कृष्ट योग होने से 28 भेद होते हैं / यहाँ जीवों का अल्पबहुत्व न कह कर योगों के अल्पबहुत्व का कथन किया गया है। इनमें सबसे अल्प, सूक्ष्म अपर्याप्त एकेन्द्रिय का जघन्य-योग हैं, क्योंकि उन जीवों का शरीर सूक्ष्म और अपर्याप्त (अपूर्ण) होने के कारण दूसरे सभी जीवों के योगों की अपेक्षा उनका योग सबसे अल्प होता है और वह भी कार्मण शरीर द्वारा औदारिक शरीर ग्रहण करने के प्रथम समय में ही होता है। तत्पश्चात् समय-समय पर योग में वृद्धि होती है, जो उत्तरोत्तर उत्कृष्ट योग तक बढ़ता है / पूर्वोक्त - सूक्ष्म अपर्याप्त की अपेक्षा अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय जीव का जघन्य योग असंख्यातगुण होता है। बादर होने के कारण उसका योग असंख्यातगुण बड़ा होता है। इसी प्रकार आगे भी जानना चाहिए।' ___ यद्यपि पर्याप्त त्रीन्द्रिय की उत्कृष्ट काया की अपेक्षा पर्याप्तक द्वीन्द्रियों की काया तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय की उत्कृष्ट काया, संख्यात योजन होने से संख्यातगुण ही होती है, तथापि यहाँ परिस्पन्दनरूप योग की विवक्षा होने से तथा क्षयोपशम-विशेष की सामर्थ्य से असंख्यातगुण होने का कथन विरुद्ध नहीं है, क्योंकि यह कोई नियम नहीं है कि अल्पकाय वाले का परिस्पन्दन अल्प हो और महाकाय वाले का परिस्पन्दन बहुत हो, क्योंकि इससे विपरीत भी दृष्टिगोचर होता है। अल्पकाय वाले का परिस्पन्दन महान् भी होता है और महाकाय वाले का परिस्पन्दन प्रल्प भी होता है।' आगे हम जघन्य और उत्कृष्ट योग के अल्पबहुत्व का यंत्र भी दे रहे हैं, जिससे स्पष्ट प्रतीत हो जाएगा कि महाकाय वाले का परिस्पन्दन अल्प और अल्पकाय वाले का महान् परिस्पन्द भी होता है / प्रथम समयोत्पन्नक चतुविशति दण्डकवर्ती दो जीवों का समयोगित्व-विषमयोगित्वनिरूपण 6. [1] दो भंते नेरतिया पलमसमयोववनगा कि समजोगी, विसमजोगी ? गोयमा ! सिय समजोगी, सिय विसमजोगी। [6-1 प्र.] भगवन् / प्रथम समय में उत्पन्न दो नैरयिक समयोगी होते हैं या विषमयोगी ? [6-1 उ.] गौतम ! कदाचित् समयोगी होते हैं और कदाचित् विषमयोगी होते हैं। [2] से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चति—सिय समजोगी, सिय विसमजोगी ? गोयमा ! पाहारयानो वा से अणाहारए, प्रणाहारयाओ वा से प्राहारए सिय होणे, सिय तुल्ले, 1. (क) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 7, पृ. 3201 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 853-854 2. वही, पत्र 853 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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