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________________ पच्चीसवां शतक : उदृ शक 1 283 जघन्य और उत्कृष्ट योग के अल्पबहुत्व का यंत्र सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त | बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त द्वीन्द्रिय अपर्याप्त द्वीन्द्रिय पर्याप्त त्रीन्द्रिय अपर्याप्त | श्रीन्द्रिय पर्याप्त चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त चतुरिन्द्रिय पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त | संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जघन्य जघन्य जघन्य जघन्य | जघन्य जघन्य जघन्य उत्कृष्ट ! जघन्य जघन्य | जघन्य 204 उत्कृष्ट | जघन्य / उत्कृष्ट उत्कृष्ट | उत्कृष्ट उत्कृष्ट उत्कृष्ट उत्कृष्ट उत्कृष्ट 27 उत्कृष्ट 23 28 उत्कृष्ट hea | जघन्य 12 29€აგ सिय अभहिए / जवि होणे असंखेज्जतिभागहीणे वा संखेज्जतिभागहोणे वा, संखेज्जगुणहीणे वा असंखेज्जगुणहोणे वा / अह अम्महिए असंखेज्जतिभागमभहिए वा संखेज्जतिभागमभहिए वा, संखेज्जगुणमन्भहिए वा असंखेज्जगुणमन्भहिए वा / सेतेणट्टेणं जाव सिय विसमजोगी। [6-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता है कि कदाचित् समयोगी और कदाचित् विषमयोगी होते हैं ? f6-2 उ.] गौतम ! आहारक नारक से अनाहारक नारक और अनाहारक नारक से आहारक नारक कदाचित् हीनयोगी, कदाचित् तुल्ययोगी और कदाचित् अधिकयोगी होता है। (अर्थात्आहारक नारक से अनाहारक नारक हीन योग वाला, अनाहारक से आहारक नारक अधिक योग वाला और दोनों नों अहारक या दोनों अनाहारक नारक परस्पर तुल्य योग वाले होते हैं।) यदि वह हीन योग वाला होता है तो असंख्यातवें भागहीन, संख्यातवें भागहीन, संख्यातगुणहीन या असंख्यातगुणहीन होता है / यदि अधिक योग वाला होता है तो असंख्यातवाँ भाग अधिक, संख्यातवाँ भाग अधिक, संख्यातगुण अधिक या असंख्यातगुण अधिक होता है। इस कारण से कहा गया है कि कदाचित् समयोगी और कदाचित् विषमयोगी भी होता है। 1. श्रीमद् भगवतीसूत्रम् चतुर्थखण्ड (गुजराती मनुवादसहित), पृ. 199 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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