________________ चौवीसवां शतक : उद्देशक 12] [209 हैं, इनके आगे सनत्कुमारकल्प से लेकर अच्युतकल्प के देव च्यवन करके पृथ्वीकायादि में उत्पन्न नहीं होते।' 54. सोहम्मदेवे णं भंते ! जे भविए पुढविकाइएसु उवव० से णं भंते ! केवति ? एवं जहा जोतिसियस्स गमगो। णवरं ठिती अणुबंधो य जहन्नेणं पलिप्रोवमं, उक्कोसेणं दो सागरोवमाई। कालादेसेणं जहण्णेणं पलिप्रोवम अंतोमुत्तमम्भहियं, उक्कोसेणं दो सागरोवमाइं बावीसाए वाससहस्सेहिं अभहियाई, एवतियं कालं / एवं सेसा वि अट्ठ गमगा भाणियन्वा, णवरं ठिति कालाएसं च जाणेज्जा। [1-6 गमगा] / [54 प्र.] भगवन ! सौधर्म कल्पोपपन्न वैमानिक देव, जो पृथ्वी कायिकों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिक में उत्पन्न होता है ? इत्यादि प्रश्न / [54 उ.] गौतम ! ज्योतिष्क देवों के गमक के समान (यहाँ भी प्रथम गमक) कहना चाहिए / विशेषता यह है कि इनकी स्थिति और अनुबन्ध जघन्य एक पल्योपम और उत्कृष्ट दो सागरोपम है / (संवेध) कालादेश से जघन्य अन्तर्मुहुर्त अधिक एक पल्योपम और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष अधिक दो सागरोपम, इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है। इसी प्रकार शेष पाठ गमक भी जानने चाहिए / विशेष यह है कि यहाँ स्थिति और कालादेश (पहले की अपेक्षा भिन्न) समझने चाहिए / गमक 1 से 6 तक] 55. ईसाणदेवे गं भंते ! जे भविए. ? एवं ईसाणदेवेण वि नव गमगा भाणियब्वा, नवरं ठिती अणुबंधो जहन्नेणं सातिरेगं पलिओवमं, उक्कोसेणं सातिरेगाई दो सागरोवमाई / सेसं तं चेव / सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहरति / // चउवीसहमे सते : बारसमो उद्देसनो समत्तो // 24-12 // [55 प्र.] भगवन् ! ईशानदेव, जो पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होने योग्य है, कितने काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उसकी उत्पत्ति होती है ? [55 उ.] (गौतम ! ) इस (ईशानदेव के) सम्बन्ध में पूर्वोक्त नौ ही गमक इसी प्रकार कहना चाहिए / विशेष यह है कि स्थिति और अनुबन्ध जघन्य सातिरेक एक पल्योपम और उत्कृष्ट सातिरेक दो सागरोपम होता है / शेष सब पूर्ववत् समझना चाहिए। 1. (क) भगवती. हिन्दीविवेचन, भा. 7, पृ. 3102 (ख) वैमानिकाः कल्पोपपन्नाः कल्पातीताश्च / सौधर्मशान-सानकमार-माहेन्द्र-ब्रह्मलोक-लान्तक-महाशुक्रसहनारेब्वानत-प्राणतयोरारणाच्युतयोर्न वसु वेयकेषु विजय-वैजयन्त-जयन्ताऽपराजितेषु सर्वार्थसिद्धच / --तत्त्वार्थ सूत्र अ. 4, सू. 17, 18, 20 / (ग) दिवाहपत्तिमुक्त, भा. 2 (मू. पाटि.), पृ. 941-942 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org