________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 6] [319 महावीरस्स अंतियाओ मियवणानो उज्जाणाओ पडिनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता जेणेव बोतोभये नगरे तेणेव पहारेस्था गमणाए। [23] श्रमण भगवान महावीर द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर उदायन राजा हृष्ट-तुष्ट एवं आनन्दित हुए / उदायन नरेश ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दना-नमस्कार किया और फिर उमी अभिषेक-योग्य पट्टहस्ती पर आरूढ होकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास से, मृगवन उद्यान से निकले और (सोधे) वीतभय नगर जाने के लिए प्रस्थान किया। 24. तए णं तस्स उदायणस्स रणो अयमेयारूवे अज्झस्थिए जाव समुप्पज्जित्था--"एवं खलु अभीयीकुमारे ममं एो पुत्ते इ8 कंते जाव किमंग पुण पासणयाए ?, तं जति णं अहं अभीयोकुमारं रज्जे ठावेत्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं मुडे भवित्ता जाव पव्वधामि तो णं अभीयोकुमारे रज्जे य र? य जाव जणवए य माणुस्सएसु य कामभोएसु मुच्छिए गिद्ध गढिए अज्झोववन्ने अणादीयं अणवदग्गं दोहमद्ध चाउरतं संसारकंतारं अणुपरिट्टिस्सइ, तं नो खलु मे सेयं अभीयोकुमारं रज्जे ठावेत्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं मुडे भवित्ता जाव पब्वइत्तए / सेयं खलु मे णियगं भाइणेज्ज केसिकुमारं रज्जे ठावेत्ता समणस्स भगवतो जाव पवइत्तए"। एवं संपेहेति, एवं सं० 2 ता जेणेव बीतीभये नगरे तेणेव उवागच्छति, उवा० २त्ता बीतीभयं नगरं मझमझेणं जेणेव सए गेहे जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छति, उवा० 2 ता प्राभिसेक्कं हस्थि ठवेति, आ० ठ० 2 प्राभिसेक्काओ हत्थीओ पच्चोरुभइ, आ० 102 जेणेव सोहासणे तेणेव उवागच्छति, उवा० 2 सोहासणवरंसि पुरस्थाभिमुहे निसीयति, नि० 2 कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ को० स० 2 एवं वयासीखिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! वीतीभयं नगरं सभितरबाहिरियं जाव पच्चप्पिणंति / [24] तत्पश्चात् (मार्ग में ही) उदायत राजा को इस प्रकार का अध्यवसाय यावत् (मनोगत संकल्प) उत्पन्न हुआ—'वास्तव में अभीचि कुमार मेरा एक ही (इकलौता) पुत्र है, वह मुझे अत्यन्त इष्ट एवं प्रिय है; यावत् उसका नाम-श्रवण भी दुर्लभ है तो फिर उसके दर्शन दुर्लभ हों, इसमें तो कहना ही क्या ? अतः यदि मैं अभीचि कुमार को राजसिंहासन पर बिठा कर श्रमण भगवान् महावीर के पास मुण्डित होकर यावत् प्रवजित हो जाऊं तो अभोचि कुमार राज्य और राष्ट्र में, यावत जनपद में और मनुष्य-सम्बन्धी कामभोगों में मूच्छित, गद्ध, ग्रथित एवं अत्यधिक तल्लीन होकर अनादि, अनन्त, दीर्घमार्ग वाले चतुर्गतिरूप संसार-अटवी में परिभ्रमण करेगा। अत: मेरे लिए अभीचि कुमार को राज्यारूद कर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास, मुण्डित होकर यावत् प्रवजित होना श्रेयस्कर नहीं है / अपितु मेरे लिए यह श्रेयस्कर है कि मैं अपने भानजे केशी कुमार को राज्यारूढ करके श्रमण भगवान् महावीर के पास यावत् प्रवजित हो जाऊँ।' उदायमनप इस प्रकार अन्तर्मन्थन (सम्प्रेक्षण) करता हुआ वोतिभय नगर के निकट पाया वीतिभय नगर के मध्य में होता हुया अपने राजभवन के बाहर की उपस्थानशाला में आया और अभिषेक योग्य पट्टहस्ती को खड़ा किया / फिर उस पर से नीचे उतरा। तत्पश्चात् वह राजसभा में सिंहासन के पास आया और पूर्व दिशा की ओर मुख करके उक्त सिंहासन पर बैठा / तदनन्तर अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर उन्हें इस प्रकार का आदेश दिया-देवानुप्रियो ! वीतिभय नगर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org