________________ 320] [व्याख्याप्राप्तिसूत्र को भीतर और बाहर से शीघ्र ही स्वच्छ करवानो, यावत् कौटुम्बिक पुरुषों ने नगर की भीतर और बाहर से सफाई करवा कर यावत् उनके आदेश-पालन का निवेदन किया / 25. तए णं से उदायणे राया दोच्च पि कोडुबियपुरिसे सहावेइ, स०२ एवं वधासोखिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! केसिस्स कुमारस्स महत्थं महापं महरिहं एवं रायाभिसेओ जहा सिवभहस्स (स० 11 उ० 9 सु० 7-9) तहेव भाणियब्वो जाव परमायु पालयाहि इट्ठजणसंपरिवडे सिंधुसोवीरपामोक्खाणं सोलसण्हं जणवदाणं, बीतीभयपामोवखाणं०, महसेणप्पा०, अन्नेसि च बहूणं राईसर-तलवर जाव कारेमाणे पालेमाणे विहराहि, लि कट्ट. जयजयसद्द पउंजंति / [25] तदनन्तर उदायन राजा ने दूसरी बार कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उन्हें इस प्रकार की आज्ञा दी-'देवानुप्रियो ! केशी कुमार के महार्थक (सार्थक), महामूल्य, महान् जनों के योग्य यावत् राज्याभिषेक की तैयारी करो / ' इसका समग्र वर्णन (शतक 11, उ. 9, सूत्र 7 से 1 में उक्त) शिवभद्र कुमार के राज्याभिषेक के समान यावत-परम दीर्घायु हो, इष्टजनों से परिवृत होकर सिन्धुसौवीर-प्रमुख सोलह जनपदों, वीतिभय-प्रमुख तीन सौ तिरेसठ नगरों और आकरों तथा मुकुटबद्ध महासेनप्रमुख दस राजाओं एवं अन्य अनेक राजाओं, श्रेष्ठियों, कोतवाल (तलवर) आदि पर आधिपत्य करते तथा राज्य का परिपालन करते हुए विचरो'; यों (आशीर्वचन) कह कर जय-जय शब्द का प्रयोग किया / 26. तए णं से केसी कुमारे राया जाते महया जाव विहरति / [26] इसके पश्चात् केशी कुमार राजा बना / वह महा हिमवान् पर्वत के समान इत्यादि वर्णन युक्त यावत् विचरण करता है। विवेचन—उदायन नप का राज्य सौंपने के विषय में चिन्तन-भगवान् महावीर के प्रवचनश्रवण के बाद उदायन नरेश का पहले विचार हुया कि अपने पुत्र अभीचि कुमार का राज्याभिषेक करके मैं प्रवजित हो जाऊँ, किन्तु बाद में उन्होंने अन्तर्मन्थन किया तो उन्हें लगा कि अभीचि कुमार को यदि में राज्य सौंप दंगा तो वह राज्य, राष्ट्र, जनपद आदि में तथा मानवीय कामभोगों में मूच्छित, आसक्त एवं लोलुप हो जाएगा, फलस्वरूप वह अनादि अनन्त चातुर्गतिक संसारारण्य में परिभ्रमण करता रहेगा / यह उसके लिए अकल्याणकर होगा। अतः उसे राज्य न सौंप कर अपने भानजे केशी कुमार को सौंप दूं / ' कठिन शब्दों का भावार्थ-मुच्छिए----मूच्छित-आसक्त / गिद्ध -- गद्ध-लुब्ध / गढिएग्रथित - बद्ध / अज्झोक्वण्णे--अत्यधिक तल्लीन 1 अणादीयं-अनादि प्रवाहरूप से आदिरहित, अगवदग्गं-अनवदन-अनन्त—प्रवाहरूप से अन्तरहित / दोहमद्ध-दीर्घ मार्ग वाले / सेयंश्रेयस्कर, कल्याणकर / भाइणेचं भानजे को / परमाउं पालयाहि-दीर्घायु रहो / सई पउंजति– शब्द का प्रयोग करता है। 1. वियाहपए यत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) 2 भगवती (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2238 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org