________________ पंचम शतक : उद्देशक-४] [ 451 सम्मदिहिउववनगा य / ' एवं प्रणंतर-परंपर-पज्जताऽपज्जता य उपउत्ता अणुवउत्ता। तत्प णं जे ते उवउत्ता ते जाणंति पासंति / से तेण?णं०, तं चेव / [30-2 प्र.] भगवन् ! कितने ही देव यावत् जानते-देखते हैं, कितने हो नहीं जानते-देखते ; ऐसा किस कारण से कहा जाता है ? 30-2 उ.] गौतम ! वैमानिक देव दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-मायीमिथ्यादृष्टिरूप से उत्पन्न और अमायीसम्यग्दृष्टि रूप से उत्पन्न / [इन दोनों में से जो मायो-मिथ्यादृष्टिरूप से उत्पन्न हुए हैं, वे (वैमानिक देव केवली के प्रकृष्ट मन-वचन को) नहीं जानते-देखते तथा जो अमायी सम्यग्दृष्टिरूप से उत्पन्न हुए हैं, वे जानते-देखते हैं / ] [प्र.] भगवन् यह किस कारण से कहा जाता है कि अमायो सम्यग्दृष्टि वैमानिक देव यावत् जानते-देखते हैं ? [उ.] गौतम ! अमायी सम्यग्दृष्टि वैमानिक देव दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा-अनन्तरोपपन्नक और परम्परोपपन्नक / इनमें से जो अनन्तरोपपन्न क हैं, वे नहीं जानते-देखते; किन्तु जो परम्परोपपत्रक हैं, वे जानते-देखते हैं / [प्र.] भगवन् ! परम्परोपपन्नक वैमानिक देव जानते-देखते हैं, ऐसा कहने का क्या कारण है ? [उ.] गौतम ! परम्परोपपन्नक वैमानिक देव दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा-पर्याप्त और अपर्याप्त / इनमें से जो पर्याप्त हैं, वे इसे जानते-देखते हैं; किन्तु जो अपर्याप्त वैमानिक देव हैं, वे नहीं जानते-देखते / ] इसी तरह अनन्तरोपपन्नक-परम्परोपपन्नक, पर्याप्त अपर्याप्त, एवं उपयोगयुक्त (उपयुक्त)उपयोगरहित (अनुपयुक्त) इस प्रकार के वैमानिक देवों में से जो उपयोगयुक्त (उपयुक्त) वैमानिक देव हैं, वे हो (केवली के प्रकृष्ट मन एवं वचन को) जानते-देखते हैं। इसी कारण से ऐसा कहा गया है कि कितने ही वैमानिक देव जानते-देखते हैं, और कितने ही नहीं जानते-देखते। विवेचन-केवली के प्रकृष्ट मन-वचन को जानने-देखने में समर्थ वैमानिक देव---प्रस्तुत (30 3) सूत्र में केवली के प्रकृष्ट मन और वचन को कौन-से वैमानिक देव जानते हैं, कौन-से नहीं जानते ? इस विषय में शंका उठाकर सिद्धान्तसम्मत समाधान प्रस्तुत किया गया है / निष्कर्ष-जो वैमानिक देव मायी-मिथ्यादृष्टि हैं, उनको सम्यग्ज्ञान नहीं होता, अमायी 1. वृत्तिकार के अनुसार वाचनान्तर में 'अमायिसम्मविष्टि उदवनगा य, के बाद ‘एवं अणंतर'-तक निम्नोक्त सूत्रपाठ साक्षात् उपलब्ध है तत्थ णं जे ते माइमिच्छाविद्रोउववन्नगा ते न याति न पासंति / तत्थ णं जे ते अमाईसम्मादिदीउबवन्नगा ते णं जाणंति पासंति / से केणणं एवं 0 अमाईसम्मविद्री जाव पा.? गोयमा ! अमाईसम्मदिदी दुविहा पण्णत्ता--अर्णतरोववन्नमा य परंपरोवबन्नगाय। तत्थ अणंतरोववन्नगा न जा०, परंपरोववन्नगा जाणंति / से केपणे भंते ! एवं वृच्चइ, परंपरोववन्नगा जाव जाणंति? गोयमा! परंपरोवबन्नगा विहा पणत्ता-पज्जत्तमा अपज्जत्तगा य। पज्जत्ता जा० / अपज्जत्तगा न जा० / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org