________________ 45..] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र वह पूर्ववत् / कार्य, कारण, गुण, अवयव और आश्रय द्वारा किये गए अनुमान से होने वाला ज्ञान शेषवत् / दृष्टसाधर्म्यवत् यथा--एक पुरुष को देख कर अनेक पुरुषों का अनुमान, एक पके चावल को र अनेक चावलों के पकाने का अनमान. सामान्यदष्टवत तथा अनेक पुरुषों के बीच में अपने परिचित विशिष्ट व्यक्ति को जानना विशेषदृष्टवत् है / इसके भी अतीतकालग्रहण, वर्तमानकालग्रहण और अनागतकालग्रहण ये तीन भेद है।। उपमान (उपमा) के दो भेद-साधर्म्य से उपमा, वैधर्म्य से उपमा। साधर्म्य और वैधर्म्य उपमान के भी तीन-तीन भेद हैं-किचित्साधर्म्य, प्रायःसाधर्म्य और सर्वसाधर्म्य, किंचितवैधर्म्य, प्राय:वैधर्म्य और सर्ववैधर्म्य / श्रागम के दो भेद-लौकिक आगम और लोकोत्तर-भागमप्रमाण / ' केवली के प्रकृष्ट मन-वचन को जानने-देखने में समर्थ वैमानिक देव 29. केवली णं भंते ! पणीतं मणं वा, वई वा धारेज्जा ? हंता, धारेज्जा। [29 प्र.] भगवन् ! क्या केवली प्रकृष्ट (प्रणीत = प्रशस्त) मन और प्रकृष्ट वचन धारण करता है ? [26 उ.] हाँ, गौतम ! धारण करता है। 30. [1] जे णं भंते ! केवली पणीयं मणं वा वई वा धारेज्जा तं गं वेमाणिया देवा जाणंति, पासंति ? गोयमा ! प्रत्थेमइया जाणंति पासंति, प्रत्थेगइया न जाणंति न पासंति / [30-1 प्र.) भगवन् ! केवली जिस प्रकार के प्रकृष्ट मन और प्रकृष्ट वचन को धारण करता है, क्या उसे वैमानिक देव जानते-देखते हैं ? . [30-1 उ.] गौतम ! कितने ही (वैमानिक देव उसे) जानते-देखते हैं, और कितने ही (देव) नहीं जानते-देखते। [2] से केणटुणं जाव न जाणंति न पासंति ? गोयमा ! वेमागिया देवा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा–मायिमिच्छाविष्ट्रिउववनगा य, प्रमायि 1. (क) अनुयोगद्वारसूत्र, ज्ञानगुणप्रमाण-प्रकरण पृ. 211 से 219 तक (ख) भगक्तीसूत्र, (टोकानुवाद-टिप्पणयुक्त) खण्ड 2, पृ. 183 से 156 तक (म) प्रकर्षेण संशयाऽऽद्यभावस्वभावेन मीयते परिच्छिद्यते बस्तु येन तत्प्रमाणम् // 'स्व-पर-व्यवसायि ज्ञान प्रमाणम् / ' --रत्नाकरावतारिका 1 परि. (घ) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 222 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org