________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-५] [229 प्रसन्नताजनक है दर्शनीय है, रमणीय (अभिरूप) है और प्रतिरूप (दर्शकों के नेत्रों को सन्तुष्ट करने वाला) है / उस झरने में बहुत-से उष्णयोनिक जीव और पुदगल जल के रूप में उत्पन्न होते हैं, नष्ट होते हैं, च्यवते (च्युत होते) हैं और उपचय (वृद्धि) को प्राप्त होते हैं। इसके अतिरिक्त उस झरने में से सदा परिमित गर्म-गर्म जल (अप्काय) भरता रहता है। हे गौतम ! यह महातपोपतीर-प्रभव नामक भरना है, और हे गौतम ! यही महातपोपतीरप्रभव नामक झरने का अर्थ (रहस्य) है / ___ 'हे भगवन ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कहकर भगवान् गौतमस्वामी श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करते हैं। विवेचन-राजगह का गर्म जल का स्रोत : वैसा है या ऐसा? प्रस्तत सत्र में राजगह में वैभारगिरि के निकटस्थ उष्णजल के स्रोत के सम्बन्ध में अन्यतीथिकों के मन्तव्य को मिथ्या भगवान् का यथार्थ मन्तव्य प्ररूपित किया गया है। // द्वितीय शतक : पंचम उद्दे शक सम्पूर्ण / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org