________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 4] 275 (से लेकर यावत् वनस्पतिकायिक जीव हैं, क्या वे महाकर्म, महात्रिया, महा-पाश्रव और महावेदना वाले हैं ? ) इत्यादि प्रश्न / __ [11 उ.] (हाँ, गौतम ! ) हैं, (इत्यादि सब वर्णन जीवाभिगमसूत्र की तृतीय प्रतिपत्ति के दूसरे) नैरयिक उद्देशक के अनुसार (रत्नप्रभापृथ्वी से लेकर) यावत् अधःसप्तमपृथ्वी (तक कहना चाहिए।) विवेचनप्रस्तुत सूत्र में चौथे निरयान्त द्वार के सन्दर्भ में सातों नरकों के निकटवर्ती पृथ्वीकायादि जीवों के महाकर्मी प्रादि होने का अतिदेशपूर्वक कथन किया गया है। लोक-त्रिलोक का प्रायाम-मध्यस्थान निरूपरण : पंचम लोकमध्यद्वार 12. कहि णं भंते ! लोगस्स आयाममज्के पन्नत्ते ? गोयमा ! इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए ओवासंतरस्स असंखेज्जतिभागं ओगाहित्ता, एत्थ णं लोगस्स पायाममाझे पणत्ते / {12 प्र.] भगवन् ! लोक के आयाम (लम्बाई) का मध्य (मध्यभाग) कहाँ कहा गया है ? [12 उ.] गौतम ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के प्राकाशखण्ड (अवकाशान्तर) के असंख्यातवें भाग का अवगाहन (उल्लंघन करने पर लोक की लम्बाई का मध्यभाग कहा गया है। 13. कहि णं भंते ! अहेलोगस्स आयाममझे पन्नत्ते ? गोयमा ! चउत्थीए पंकप्पभाए पुढवीए प्रोवासंतरस्स सातिरेगं अद्ध ओगाहित्ता, एत्थ णं अहेलोगस्स आयाममज्झे पन्नत्ते। [13 प्र.] भगवन् ! अधोलोक की लम्बाई का मध्यभाग कहाँ कहा गया है ? [13 उ.] गौतम ! चौथी पंकप्रभापृथ्वी के आकाशखण्ड (अवकाशान्तर) के कुछ अधिक अर्द्ध भाग का उल्लंघन करने के बाद, अधोलोक को लम्बाई का मध्यभाग कहा गया है। 14. कहि णं भंते ! उड्ढलोगस्स याममझे पन्नत्ते ? गोयमा ! उप्पि सणंकुमार-माहिंदाणं कप्पाणं हेट्ठि बंभलोए कप्पे रिटु विमाणपत्थडे, एत्थ णं उड्ढलोगस्स पायाममज्झे पनते / [14 प्र.] भगवन् ! ऊवलोक की लम्बाई का मध्य भाग कहाँ बताया गया है ? |14 उ.] गौतम ! सनत्कुमार और माहेन्द्र देवलोकों के ऊपर और ब्रह्मलोक कल्प के नीचे एवं रिण्ट नामक विमानप्रस्तट (पाथडे ) में ऊर्वलोक की लम्बाई का मध्यभाग बताया गया है। 15. कहि णं भंते ! तिरियलोगस्स आयाममज्झे पन्नत्ते ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पन्वयस्स बहुमज्झदेसभाए इमोसे रयणप्पमाए पुढवीए उरिमहेटिल्लेसु खुड्डगपयरेसु, एत्थ णं तिरियलोगमज्झे अट्ठपएसिए स्यए पन्नत्ते, जओ गं इमाओ दस दिसाओ पवहंति, तं जहा–पुरस्थिमा पुरस्थिमदाहिणा एवं जहा दसमसते [स० 10 उ० 1 सु० 6-7] जाव नामधेज्ज त्ति / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org