________________ 274] [ख्यास्याप्राप्तिसूत्र 8. एवं आउफासं। [8] इसी प्रकार (रत्नप्रभा से लेकर अध सप्तमपृथ्वी के नैरयिक) (अनिष्ट यावत् मनः प्रतिकूल) अप्कायिक स्पर्श का (अनुभव करते हुए रहते हैं।) 9. एवं जाव वणस्सइफासं / [6] इसी प्रकार (तेजस्काय से लेकर) यावत् वनस्पतिकायिक स्पर्श (के विषय में भी कहना चाहिए।) विवेचन--प्रस्तुत चार सूत्रों में रत्नप्रभापृथ्वी से लेकर अधःसप्तमपृथ्वी तक के नैरयिकों के पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति के अनिष्ट, अनिष्टतर, अनिष्टतम यावत् मनःप्रतिकूल, प्रतिकूलतर, प्रतिकूलतम स्पर्श के अनुभव का निरूपण किया गया है। इस प्रकार द्वितीय स्पर्शद्वार पूर्ण हुआ। सात पृथ्वियों की परस्पर मोटाई छोटाई आदि की प्ररूपरणा-तृतीय प्रणिधिद्वारा 10. इमा णं भंते ! रयणप्पभा पुढवी दोच्चं सक्करप्पभं पुढवि पणिहाए सन्त्रमहंतिया बाहल्लेणं, सब्वखुड्डिया सम्वतेसु ? __ एवं जहा जीवाभिगमे बितिए नेरइयउद्देसए / [10 प्र.] भगवन् ! क्या यह (प्रथम) रत्नप्रभापृथ्वी, द्वितीय शर्कराप्रभापृथ्वी की अपेक्षा मोटाई में सबसे मोटी और चारों ओर (चारों दिशाओं में) (लम्बाई-चौड़ाई में) सबसे छोटी है ? [10 उ.] (हाँ गौतम ! ) इसी प्रकार है। (शेष सब वर्णन) जीवाभिगमसूत्र को तृतीय प्रतिपत्ति के दूसरे नैरयिक उद्देशक में (कहा है, तदनुसार यहाँ भी कहना चाहिए।) विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में तीसरे 'प्रणिधि (अपेक्षा) द्वार' के सन्दर्भ में सातों नरकपृथ्वियों की मोटाई, लम्बाई-चौड़ाई का एक दूसरे से तारतम्य जीवाभिगमसूत्र के अतिदेश-पूर्वक बताया गया है। सात पृश्चियों के निकटवर्ती एकेन्द्रियों की महाकर्म-अल्पकर्मतादिनिरूपणा-चतुर्थ निरयान्तद्वार 11. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए गिरयपरिसामंतेसु जे पुढविकाइया ? एवं जहा नेरइयउद्दसए जाव अहेसत्तमाए। [11 प्र.] भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नरकावासों के परिपाई में जो पृथ्वीकायिक 1. जीवाभिगम में सूचित पाठ इस प्रकार है-.-"हंता, गोयमा ! इमा णं रयणप्पभा पुढवी दोच्च पुढीब पणिहाय जाव सम्बखुडिया सम्वंतेसु / दोच्चा णं भंते ! पुढवी तच्चं पुदि पणिहाय सब्बमहंतिया बाहल्लेणं० पुच्छा ? हंता, गोयमा ! दोच्चा गं जाव सम्वखुड्डिया सन्वतेसु / एवं एएणं अभिलावेणं जाव छट्ठिया पुढवी अहेसत्तम पुढदि पणिहाय जाब सव्वखुड्डिया सव्वंतेसु ति।" अवृ०॥ -जीवाजीवाभिगमसूत्रम, प. 127, मागमोदय. / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org