________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 4] [273. विवेचन-नरकावासों को परस्पर तरतमता प्रस्तुत 5 सूत्रों (सू. 1 से 5 तक ) में सातों नरकपृथ्वियों के नरकावासों की संख्या, विशालता, विस्तार, अवकाश, स्थानरिक्तता, प्रवेश, संकीर्णता, व्यापकता, कर्म, क्रिया, आश्रव, वेदना, ऋद्धि और ति आदि विषयों में एक दूसरे से तरतमता का निरूपण किया गया है।' कठिन शब्दार्थ-अणुत्तरा-प्रधान / महतिमहालया-महातिमहान्-बहुत बड़े / पंच णरगा---- पांच नरकावास हैं-काल, महाकाल, रौरव, महारोरव और प्रतिष्ठान / महत्तरा ( मह दीर्घता (लम्बाई) की अपेक्षा (शेष 6 नरकों से) बड़े। महाविस्थिण्णतरा (महाविच्छिण्णतरा)चौड़ाई (विष्कम्भ) की अपेक्षा अत्यन्त विस्तृत / महोवासतरा-(स्थान की दृष्टि से) महान् अवकाश बाले / महापतिरिक्कतरा--(जीवों के प्रवस्थान की दृष्टि से) अत्यन्त रिक्त हैं। महापवेसणतरामहाप्रवेश वाले अर्थात्-दूसरी गति से आकर जिनमें बहुत-से जीव प्रवेश करते हों, ऐसे / प्राइण्णतरा-अत्यन्त प्राकीर्ण / पाउलतरा-व्याकुलता (व्यापकता) से युक्त / अणोमाणतरा-अल्पपरिमाण वाले नहीं है--विशाल परिमाण वाले हैं, अथवा पाठान्तर अणोयणतरा-अनोदनतर हैं, अर्थात् नारकों की बहुसंख्यकता न होने से जहाँ एक दूसरे से नोदन-ठेलमठेल या धक्कामुक्की–नहीं होती। महाकम्मतरा-महाकम वाले, अर्थात्-प्रायुष्य, वेदनीय आदि कर्मों की प्रचुरता वाले / महाकिरियतरा-कायिकी आदि महाक्रिया वाले / महासक्तरा-महान अशुभ प्राश्रव वाले / महावेयणतरामहावेदना वाले / अल्पकम्मतरा-अल्पकर्म वाले / अप्पिडियतरा-अल्पऋद्धि वाले / अप्पज्जुइयतराअल्पद्युति वाले / नेरइएहितो-नारकों से / महड्डियतरा-महान् ऋद्धि वाले। महन्जुइयतरा-- महाद्युति वाले। सात पृथ्वी के नैरयिकों को एकेन्द्रिय जीव स्पर्शानुभवप्ररूपणा-द्वितीय स्पर्शद्वार 6. रयणप्पभपुढविनेरइया गं भंते ! केरिसयं पुढविफासं पच्चणुभवमाणा विहरंति ? गोयमा ! अणि? जाच अमणाणं / [6 प्र.] भगवन् ! रत्नप्रभा के नैरयिक (वहां की) पृथ्वी के स्पर्श का कैसा अनुभव करते [6 उ.] गौतम ! (वे वहाँ की पृथ्वी के) अनिष्ट यावत् मन के प्रतिकूल स्पर्श का अनुभव करते रहते हैं। 7. एवं जाव प्रसत्तमपुढविनेरतिया। [7] इसी प्रकार यावत अधःसप्तमपृथ्वी के नैरयिकों द्वारा पृथ्वी काय के (उत्तरोत्तर अनिष्टतर, अनिष्टतम यावत् मनःप्रतिकूलतर-प्रतिकूलतम) स्पर्शानुभव के विषय में कहना चाहिए। 1. वियाहपण्णत्तिसुत्त (मूलपाठ-टिप्पण-युक्त), पृ. 626-627 2. (क) भगवती. अ. वृत्ति (ख) भगवती. (हिन्दीबिबेचन) भा. 5 पृ. 2177-78 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org