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________________ 272] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 3. छाए गं तमाए पुढवीए एगे पंचूणे निरयावाससयसहस्से पन्नत्ते / ते गं नरगा अहेसत्तमाए पुढवीए नेरइएहितो नो तहा-महत्तरा चेव, महाविस्थिण्ण० 4; महप्पवेसणतरा चेव, आइण्ण 4 / तेसु णं नरएसु नेरइया अहेसत्तमाए पुढवीए नेरइएहितो अप्पकम्मतरा चेव, अप्पकिरिय० 4; नो तहा-महाकम्मतरा चेव, महाकिरिय० 4; महिड्डियतरा चेव, महज्जुतियतरा चेव; नो तहा-- अप्पिड्डियतरा चेव, अप्पज्जुतियतरा चेव। ट्ठाए गं तमाए पुढवीए नरगा पंचमाए धूमप्पभाए पुढवीए नरएहितो महत्तरा चेष० 4; नो तहा महत्पवेसणतरा चेव० 4 / तेसु णं नरएसु नेरइया पंचमाए धूमप्पभाए पुढवीए नेरइएहितो महाकम्मतरा चेव० 4; नो तहा अप्पकम्मतरा चेव० 4; अपिडियतरा चेव अप्पजुइयतरा चेव; नो तहा महिट्टियतरा चेव० 2 / 3 छठी तमःप्रभापृथ्वी में पांच कम एक लाख नरकावास कहे गए हैं। वे नरकावास अधःसप्तमपृथ्वी के नरकावासों के जैसे न तो महत्तर हैं और न ही महाविस्तीर्ण हैं; न हो महान् अवकाश वाले हैं और न शून्य स्थान वाले हैं। वे (सप्तम नरक पृथ्वी के नरकावासों की अपेक्षा) महाप्रवेश वाले हैं, संकीर्ण हैं, व्याप्त हैं, विशाल हैं। उन नरकावासों में रहे हुए नैरयिक अधःसप्तमपृथ्वी के नैरयिकों की अपेक्षा अल्पकर्म, अल्पक्रिया, अल्प-पाधव और अल्पवेदना वाले हैं / वे अध:सप्तमपृथ्वी के नारकों के समान महाकर्म, महा क्रिया, महाश्रव और महावेदना बाले नहीं हैं। वे उनकी अपेक्षा महान् ऋद्धि और महाद्युति वाले हैं, किन्तु वे उनकी तरह अल्प ऋद्धि वाले और अल्पद्युति वाले नहीं हैं। छठी तमःप्रभा नरक पृथ्वी के नरकाबास पांचवीं धूमप्रभा नरकपृथ्वी के नरकावासों से महत्तर, महाविस्तीर्ण, महान् अवकाश वाले, महान् रिक्त स्थान वाले हैं। वे पंचम नरकपृथ्वी के नरकावासों की तरह महाप्रवेश वाले, पाकीर्ण (व्याप्त), व्याकुलतायुक्त एवं विशाल नहीं हैं। छठी पथ्वी के नरकावासों के नरयिक पांचवीं धसभापथ्वी के नैरयिकों की अपेक्षा महाकर्म, महाक्रिया, महाश्रव तथा महावेदना वाले है। उनकी (पांचवीं धूमप्रभा के नारकों की) तरह वे अल्पकर्म, अल्पक्रिया, अल्पाश्रव एवं अल्पवेदना वाले नहीं हैं तथा वे उनसे अल्पऋद्धि वाले और अल्पद्युति वाले हैं, किन्तु महान् ऋद्धि वाले और महाधुति वाले नहीं हैं। 4. पंचमाए णं धूमप्पभाए पुढवीए तिन्नि निरयावाससतसहस्सा पन्नता। [4] पांचवीं धूमप्रभापृथ्वी में तीन लाख नरकावास कहे गए हैं। 5. एवं जहा छट्टाए भणिया एवं सत्त वि पुढवीओ परोप्परं भण्णति जाव रयणप्पम त्ति / जाव नो तहा महिड्डियतरा चेव अप्पज्जुतियतरा चेव / [5] इसी प्रकार जैसे छठी तमःप्रभापृथ्वी के विषय में परस्पर तारतम्य बताया, वैसे सातों नरकश्वियों के विषय में परस्पर तारतम्य, यावत् रत्नप्रभा तक कहना चाहिए, वह पाठ यावत् शर्कराप्रभापृथ्वी के नैरयिक, रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों की अपेक्षा महाऋद्धि और महाद्युति वाले नहीं हैं / वे उनको अपेक्षा अल्प ऋद्धि और अल्पद्युति वाले हैं, (यहाँ तक) कहना चाहिए / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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