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________________ 564]] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन-जमालि की गति के विषय में प्रश्नोत्तर-प्रस्तुत सू. 103 में जमालि अनगार को मृत्यु के बाद गौतमस्वामी के द्वारा उसकी उत्पत्ति और गति के विषय में पूछे जाने पर भगवान् ने उसका समाधान किया है। सिद्धान्त-निष्कर्ष--इस पाठ से यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि कोई साधक चाहे जितनी ऊँची क्रिया करे, कठोर चारित्रपालन करे, किन्तु यदि उसकी दृष्टि एवं मति मिथ्यात्वग्रस्त हो गई है, अज्ञानतिमिर से व्याप्त है, मिथ्याभिनिवेशवश वह मिथ्यासिद्धान्त को पकड़े हुए है, सरलता और जिज्ञासापूर्वक समाधान पाने की रुचि उसमें नहीं है, तो वह देवलोक में जाने पर भी निम्नकोटि का देव बनता है और संसारपरिभ्रमण करता है।' किल्विषिक देवों के भेद, स्थान एवं उत्पत्तिकारण 104. कतिविहा गं भंते ! देवकिदिबसिया पण्णत्ता? गोयमा! तिबिहा देवकि बिसिया पण्णत्ता, तं जहा--तिपलिओवमट्टिईया, तिसागरोवमट्ठिईया, तेरससागरोवमट्टिईया। [104 प्र.] भगवन् ! किल्बिषिक देव कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [104 उ. गौतम ! किल्विषिक देव तीन प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं--(१) तीन पल्योपम की स्थिति वाले, (2) तीन सागरोपम की स्थिति वाले और (3) तेरह सागरोपम की स्थिति वाले। 105. कहि णं भंते ! तिपलिग्रोवमद्वितीया देवकिदिबसिया परिवसंति ? गोयमा ! उपि जोइसियाणं, हिट्टि सोहम्मोसाणेसु कप्पेसु, एत्थ गं तिपलिग्रोवट्टिईया देवकिब्बिसिया परिवसंति / [105 प्र.] भगवन् ! तीन पल्योपम की स्थिति वाले कित्विषिक देव कहाँ रहते हैं ? [105 उ.] गौतम ! ज्योतिष्क देवों के ऊपर और सौधर्म-ईशान कल्पों (देवलोकों) के नीचे तीन पल्योपम की स्थिति वाले देव रहते हैं। 106. कहि णं भंते ! तिसागरोवमट्टिईया देवकिब्बिसिया परिवसंति ? गोयमा! उपि सोहम्मीसाणाणं कप्पाणं, हिट्टि सणंकुमार-माहिदेसु कप्पेसु, एत्य गं तिसागरोवमट्टिईया देवकिब्बिसिया परिवसंति / / 106 प्र.) भगवन् ! तीन सागरोपम की स्थिति वाले किल्विषिक देव कहाँ रहते हैं ? / 106 उ. गौतम! सौधर्म और ईशान कल्पों के ऊपर तथा सनत्कुमार और माहेन्द्र देवलोक के नीचे तीन सागरोपम की स्थिति वाले देव रहते हैं। 107. कहि णं भंते ! तेरससागरोवमदुिईया देवकिब्बिसिया देवा परिवसंति ? गोयमा ! उष्पि बंभलोगस्स कप्पस्स, हिटि लंतए कप्पे, एत्थ णं तेरससागरोवदिईया देवकिब्बिसिया देवा परिवसंति / - - - - - - -- --- 1. वियाहाण्णत्ति सुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. 1, पृ. 480 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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