________________ मेव शतक : उद्देशक-३३1 [107 प्र.] भगवन् ! तेरह सागरोपम की स्थिति वाले किल्बिषिक देव कहाँ रहते हैं ? [107 उ.] गौतम ! ब्रह्मलोक कल्प के ऊपर तथा लान्तक कल्प के नीचे तेरह सागरोपम की स्थिति वाले किल्विषिक देव: 108. देवकिब्बिसिया णं भंते ! केसु कम्मादाणेसु देवकिब्बिसियत्ताए उववत्तारो भवंति ? गोयमा ! जे इमे जीवा आयरियडिणीया उवज्झायपडिणीया कुलपडिणीया गणपतिणीया, संघपडिणीया, प्रायरिय-उवभायाणं अयसकरा अवष्णकरा अकित्तिकरा बहिं असम्भावभावाहि मिच्छत्ताभिनिवेसेहि य अप्पाणं च परं च उभयं च बुग्गाहेमाणा वुप्पाएमाणा बहूई वासाई सामण्णपरियागं पाउणंति, पाउणित्ता तस्स ठाणस्स प्रणालोइयपडिक्कंता कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु देवकिब्बिसिएसु देवकिब्बिसियत्ताए उववत्तारो भवंति; तं जहा-तिपलिओवमष्ट्रितीएसु वा तिसागरोवमद्वितीएसु वा तेरससागरोवमट्टितीएसु वा / [108 प्र.] भगवन् ! किन कर्मों के आदान (ग्रहण या निमित्त) से किल्विषिक देव, किल्विषिक देव के रूप में उत्पन्न होते हैं ? [108 उ.] गौतम ! जो जीव प्राचार्य के प्रत्यनीक (द्वषी या विरोधी) होते हैं, उपाध्याय के प्रत्यनीक होते हैं, कुल, गण और संघ के प्रत्यनीक होते हैं तथा आचार्य और उपाध्याय का अयश (अपयश) करने वाले, अवर्णवाद बोलने वाले और अकीर्ति करने वाले हैं तथा बहुत से असत्य भावों (विचारों या पदार्थों) को प्रकट करने से, मिथ्यात्व के अभिनिवेशों (कदाग्रहों) से, अपनी आत्मा को, दूसरों को और स्व-पर दोनों को भ्रान्त और दुर्बोध करने वाले बहुत वर्षों तक श्रमण-पर्याय का पालन करके उस अकार्य (पाप)-स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना काल के समय काल करके निम्तोक्त तीन में (से) किन्हीं किल्विषिक देवों में किल्विषिक देव रूप में उत्पन्न होते हैं। जैसे कि-(१) तीन पल्योपम की स्थिति वालों में, (2) तीन सागरोपम की स्थिति वालों में अथवा (3) तेरह सागरोपम की स्थिति वालों में / 109. देवकिबिसिया णं भंते ! ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता कहिं गच्छंति ? कहिं उववज्जति ? गोयमा ! जाव चत्तारि पंच नेरइय-तिरिक्खजोणिय-मणुस्स-देवभवम्गहणाई संसारं अणुपरियट्टित्ता तओ पच्छा सिझति बुज्झति जाव अंतं करेंति / अत्थेगइया अणादीयं अणवदग्गं दोहमद्ध चाउरंतसंसारकतारं अणुपरियति / [106 प्र.] भगवन् ! किल्विषिक देव उन देवलोकों से आयु का क्षय होने पर, भवक्षय होने पर और स्थिति का क्षय होने के बाद व्यवकर कहाँ जाते हैं, कहाँ उत्पन्न होते हैं ? . [106 उ.] गौतम ! कुछ किल्विषिक देव, नैरयिक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव के चार-पांच भव करके और इतना संसार-परिभ्रमण करके तत्पश्चात् सिद्ध-बुद्ध - मुक्त होते हैं, यावत् सर्वदुःखों का अन्त करते हैं और कितने ही किल्विषिक देव अनादि, अनन्त और दीर्घ मार्ग वाले चार गतिरूप संसार-कान्तार (संसार रूपी अटवी) में परिभ्रमण करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org