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________________ লিয়ামসুল विवेचन-किल्विषिक देव : प्रकार, निवास एवं उत्पत्तिकारण प्रस्तुत 6 सूत्रों (सू. 104 से 106 तक) में किल्विषिक देवों के प्रकार, उनके निवासस्थान और उनके किल्विषिक रूप में उत्पन्न होने के कारण बताए गए हैं / अन्त में किल्विषिक देवों की अनन्तर गति का निरूपण किया गया है। __कठिन शब्दों का अर्थ-उप्पि---ऊपर, हिदि-नीचे। पडिणीया-प्रत्यनीक--- शत्रु या विद्वषी / अवण्णकरा-निन्दा करने वाले / अणुपरिट्टित्ता-परिभ्रमण करके / दीहमद्ध-दीर्घमार्ग रूप / चाउरंतसंसारकंतार-चार गतियों वाले संसाररूप महारण्य को। अणवदागं-अनन्त / कम्मादाणेसु-कर्मों के आदान = कारण से / उववत्तारो-उत्पन्न होते हैं / किल्विषिक देव : स्वरूप और गतिविषयक समाधान-किल्विषिक देव उन्हें कहते हैं, जो पाप के कारण देवों में चाण्डालकोटि के देव होते हैं / वे देवसभा में चाण्डाल की तरह अपमानित होते हैं / देवसभा में जब कुछ बोलने के लिए मुह खोलते हैं तो महद्धिक देव उन्हें अपमानित करके बिठा देते हैं, बोलने नहीं देते / कोई देव उनका आदर-सत्कार नहीं करता। सु. 106 में जो यह कहा गया है कि किल्विषिक देव, नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य एवं देव के 4-5 भव ग्रहण करके मोक्ष जाते हैं, यह सामान्य कथन है। वस्तुतः देव और नारक भर कर तुरन्त देव और नारक नहीं होते / वे वहाँ से मनुष्य या लिर्यञ्च में उत्पन्न होते हैं, इसके पश्चात् देवों या नारकों में उत्पन्न हो सकते हैं। किल्विषिक देवों में जमालि की उत्पत्ति का कारण 110. जमाली गं भंते ! अणगारे अरसाहारे विरसाहारे अंताहारे पंताहारे लहाहारे तुच्छाहारे अरसजीवी विरसजीवी जाव तुच्छजीवी उबसंतजीवी पसंतजीवी विवित्तजीवी? हता, गोयमा ! जमाली णं अणगारे अरसाहारे विरसाहारे जाव विवित्तजीवी / [110 प्र.] भगवन् ! क्या जमालि अनगार अरसाहारी, विरसाहारी, अन्ताहारी, प्रान्ताहारी, रूक्षाहारी, तुच्छाहारी, अरसजीवी, विरसजीवी यावत् तुच्छजीवी, उपशान्तजीवी, प्रशान्तजीवी और विविक्तजीवी था ? [110 उ०] हाँ, गौतम ! जमालि अनगार अरसाहारी, विरसाहारी यावत् विविक्तजीवी था / 111. जति णं भंते ! जमाली अणगारे अरसाहारे विरसाहारे जाव विवित्तजीवी कम्हा णं भंते ! जमाली प्रणगारे कालमासे कालं किच्चा लंतए कप्पे तेरससागरोबमहितीएसु देवकिब्बिसिएसु देवेसु देवकिब्बिसियत्ताए उववन्ने ? 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं, भा 1 (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), पृ. 480-481 2. भगवती. (पं. घेवरचन्दजी) भा. 4. पृ. 1765-1766 3. वही, भा. 4, पृ. 1768 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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