________________ नवम शतक : उद्देशक-३३ ] [ 567 गोयमा ! जमाली गं अणगारे प्रायरियपडिणीए उवज्झायपडिणीए आयरिय-उवज्झायाणं अयसकारए जाव बुग्गाहेमाणे दुप्पाएमाणे बहूई वासाई सामण्णपरियागं पाउणित्ता अद्धमासियाए संलेहणाए तीसं भत्ताई अणसणाए छेदेति, तीसं भत्ताइं अणसणाए छेदेत्ता तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कते कालमासे कालं किच्चा लंतए कप्पे जाव उववन्ने / [111 प्र. भगवन् ! यदि जमालि अनगार अरसाहारी, विरसाहारी यावत् विविक्तजीवी था, तो काल के समय काल करके वह लान्तककल्प में तेरह सागरोपम की स्थिति वाले किल्विषिक देवों में किल्विषिक देव के रूप में क्यों उत्पन्न हया ? [111 उ.] गौतम ! जमालि अनगार प्राचार्य का प्रत्यनीक (द्वषी), उपाध्याय का प्रत्यनीक तथा प्राचार्य और उपाध्याय का अपयश करने वाला और उनका अवर्णवाद करने वाला था, यावत् वह मिथ्याभिनिवेश द्वारा अपने आपको, दूसरों को और उभय को भ्रान्ति में डालने वाला और दुर्विदग्ध (मिथ्याज्ञान के अहंकार वाला) बनाने वाला था, यावत् बहुत वर्षों तक श्रमण पर्याय का पालन कर, अर्द्धमासिक संलेखना से शरीर को कृश करके तथा तीस भक्त का अनशन द्वारा छेदन (छोड़) कर उस अकृत्यस्थान (पाप) की आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना ही, उसने काल के समय काल किया, जिससे वह लान्तक देवलोक में तेरह सागरोपम की स्थिति वाले किल्विषिक देवों में किल्बिषिक देवरूप में उत्पन्न हुआ। विवेचन-स्वादजयी अनगार किल्विषिक देव क्यों ? -- प्रस्तुत दो सूत्रों (110-111) में श्री गौतमस्वामी द्वारा यह प्रश्न पूछे जाने पर कि जमालि जैसा स्वादजयी, प्रशान्तात्मा एवं तपस्वी अनगार लान्तककल्प में किल्विषिक देवों में क्यों उत्पन्न हया? भगवान् ने उस पावृत रहस्य को र पष्टरूप से खोल कर रख दिया है कि इतना त्यागी, तपस्वी होने पर भी देव-गुरु का द्वषी, मिथ्याप्ररूपक एवं मिथ्यात्वग्रस्त होने से किल्विषिकदेव हुआ / ' कठिन शब्दों का विशेषार्थ--- उपसंतजीवी- जिसके जीवन में कषाय उपशान्त हो या अन्तर्वति से शान्त / पसंतजीवी-बहिर्वत्ति से प्रशान्त जीवन वाला। विवित्तजीवो-पवित्र और स्त्री-पशु-नपुसकसंसर्गरहित एकान्त जीवन वाला।' जमाली का भविष्य - 112. जमाली णं भंते ! देवे ताओ देवलोयाओ पाउक्खएणं जाव कहि उवजिहिति ? गोयमा ! जाव पंच तिरिक्खजोणिय-मणुस्स-देवभवग्गहणाई संसारं अणुपरियट्टित्ता ततो पच्छा सिज्झिहिति जाव अंतं काहिति / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। ॥जमाली समतो // 9.33 // 1. वियापण्णत्तिसुत्त (मूलपाठ-टिप्पण), भा. 1, पृ० 481 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 490 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org