________________ चौदहवां शतक : उद्देशक 6] [395 चित्रण से विचित्र यावत प्रतिरूप होता है। उस प्रासादावतंसक के भीतर का भूभाग अत्यन्त सम और रमणीय होता है, इत्यादि वर्णन यावत्--वहाँ मणियों का स्पर्श होता है यहाँ तक जानना चाहिए। वहाँ लम्बाई-चौड़ाई में पाठ योजन की मणिपीठिका होती है, जो वैमानिक देवों की मणिपीठिका के समान होती है। उस मणिपीठिका के ऊपर वह एक महान देवशय्या की विकुर्वणा करता है / उस देवशय्या का वर्णन यावत् 'प्रतिरूप है', (यहाँ तक करना चाहिए। वहाँ देवेन्द्र देवराज शक्र अपनेअपने परिवारसहित आठ अग्रहिषियों के साथ, गन्धर्वानीक और नाट्यानीक, इन दो प्रकार के अनीकों (सैन्यों) के साथ, जोर-जोर से आहत हुए (बजाए गए) नाट्य, गीत और वाद्य के शब्दों द्वारा यावत् दिव्य भोग्य (विषय भोगों का उपभोग करता है / 7. जाहे णं ईसाणे देविदे देवराया दिव्वाइं० जहा सक्के तहा ईसाणे वि निरवसेसं / [7 प्र.] भगवन् ! जब देवेन्द्र देवराज ईशान दिव्य भोग्य भोगों का उपभोग करना चाहता है, तब वह केसे करता है ? [7 उ.] जिस प्रकार शक्र के लिए कहा है, उसी प्रकार का समग्र कथन ईशान इन्द्र के लिए करना चाहिए। 8. एवं सणकुमारे वि, नवरं पासायवडेंसओ छज्जोयणसयाइं उड़द उच्चत्तेणं तिपिण जोयणसयाई विखंभेणं / मणिपेटिया तहेव अट्टजोणिया। तीसे गं मणिपेढियाए उरि एत्थ णं महेगं सोहासणं विउन्वति, सपरिवारं भाणियध्वं / तत्थ गं सणकुमारे देविदे देवराया बावत्तरोए सामाणिय. साहसीहि नाव चरहि य बावत्तरीहि आयरक्खदेवसाहस्सीहिं बहूहि सणंकुमारकप्पवासीहिं वेमाणिएहिं देवेहि य देवोहि य सद्धि संपरिबुडे महया जाव विहरति / 8] इसी प्रकार सनत्कुमार के विषय में भी कहना चाहिए। विशेषता यह है कि उनके प्रासादावतंसक की ऊँचाई छह सौ योजन और विस्तार तीन सौ योजन होता है। पाठ योजन (लम्बाई-चौड़ाई) की मणिपीठिका का उसी प्रकार वर्णन (पूर्ववत्) करना चाहिए। उस मणिपीठिका के ऊपर वह अपने परिवार के योग्य प्रासनों सहित एक महान् सिंहासन की विकुर्वणा करता है / (इत्यादि सब) कथन पूर्ववत् करना चाहिए। वहाँ देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार बहत्तर हजार सामानिक देवों के साथ यावत् दो लाख 88 हजार प्रात्मरक्षक देवों के साथ और सनत्कुमार कल्पवासी बहुत-से वैमानिक देव-देवियों के साथ प्रवृत्त होकर महान् गीत और वाद्य के शब्दों द्वारा यावत् दिव्य भोग्य विषयभोगों का उपभोग करता हुया विचरण करता है।। 9. एवं जहा सणंकुमारे तहा जाव पाणतो अच्चुतो, नवरं जो जस्स परिवारो सो तस्स माणियन्वो / पासायउच्चत्तं जं सएसु सएसु कप्पेसु विमाणाणं उच्चत्तं, अद्वद्ध वित्थारो जाव अच्चयस्स नव जोयणसयाई उड्ढं उच्चत्तेणं, अद्धपंचमाई जोयणसयाई विक्खंभेणं, तत्थ णं गोधमा ! प्रच्चुए देविदे देवराया दसहि सामाणियसाहस्सीहि जाब विहरति / सेसं तं चेव / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० / // चोदसमे सए : छट्ठो उद्देसओ समत्तो // 14.6 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org