________________ 308] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र लोक का बहु समभाग--यह चौदह रज्ज-परिमाण काला लोक कहीं बढ़ा हुआ है तो कहीं घटा हुआ है / इस प्रकार को वृद्धि और हानि से रहित भाग को 'बहुसम' कहते हैं। इस रत्नप्रभा नामक पृथ्वी में दो क्षुल्लक (लघुतम) प्रतर हैं / ये सबसे छोटे हैं। ऊपर के क्षुद्र प्रतर से प्रारम्भ होकर ऊपर ही ऊपर प्रतर-वृद्धि होती है और नीचे के क्षुल्लक प्रतर से नीचे-नीचे की ओर प्रतर-वृद्धि होती है / शेष प्रतरों की अपेक्षा ये प्रतर छोटे हैं, क्योंकि इनकी लम्बाई-चौड़ाई एक रज्जू-परिमित है / ये दोनों प्रतर तिर्यक्लोक के मध्यवर्ती हैं।" लोक का विग्रह-विग्रहिक-इस समन लोक की प्राकृति पुरुष-शरीराकार मानी जाती है। कमर पर हाथ रख कर खड़े हुए पुरुष के दोनों हाथों की कुहनियों (कूपर) का स्थान वक्र (टेढ़ा) होता है / इसी प्रकार इस लोक में पंचम ब्रह्मलोक नामक देवलोक के पास लोक का कर्परस्थानीय (कुहनी जैसा) वक्रभाग है / इसे ही 'विग्रहकण्डक' कहते हैं, अथवा जहाँ प्रदेशों की वृद्धि या हानि होने से वक्रता होती है, उस भाग को भी विग्रहकण्डक कहते हैं / यहाँ लोकरूप शरीर का वक्रतायुक्त भाग है / यह (विग्रहकण्डक) प्रायः लोकान्त में है / लोक-संस्थाननिरूपण : तेरहवाँ लोक-संस्थानद्वार 69. किसंठिए णं भंते ! लोए पन्नत्ते? गोयमा ! सुपतिगसंठिए लोए पन्नत्ते, हेढा विस्थिण्णे, मज्झे जहा सत्तमसए पढमुद्देसे (स०७ उ०१ सु. 5) जाव अंतं करेंति / [66 प्र.] भगवन् ! इस लोक का संस्थान (प्राकार) किस प्रकार का कहा गया है ? [66 उ.] गौतम ! इस लोक का संस्थान सुप्रतिष्ठक के आकार का कहा गया है / यह लोक नीचे विस्तीर्ण है, मध्य में संक्षिप्त (संकीर्ण) है, इत्यादि वर्णन सप्तम शतक के प्रथम उद्देशक (सू. 5) के अनुसार, यावत् संसार का अन्त करते हैं यहाँ तक कहना चाहिए। विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में लोक के आकार के विषय में सप्तम शतक के अतिदेशपूर्वक निरूपण किया गया है। लोक को आकृति और परिमाण-नीचे एक औंधा (उल्टा) मिट्टी का सकोरा रखा जाए, उसके ऊपर एक सीधा और उसके ऊपर एक उल्टा सकोरा रखा जाए। इसका जो प्राकार बनता है, वही लोक का संस्थान (प्राकार) है / इस प्राकृति से यह स्पष्ट है कि लोक नीचे से चौड़ा है, बीच में संकीर्ण हो जाता है. कुछ ऊपर फिर चौड़ा होता जाता है और सबसे ऊपर फिर संकीर्ण हो जाता है। वहाँ लोक की चौड़ाई सिर्फ एक रज्जू रह जाती है / इस प्रकार 'संसार का अन्त करते हैं', यहाँ तक जो लोक सम्बन्धी विस्तृत विवेचन भगवतीसूत्र के सप्तम शतक, प्रथम उद्देशक, पंचम सुत्र में किया गया है, उसे यहाँ भी जान लेना चाहिए / 1. भगवती, अ. वृत्ति, पत्र 616 2. भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2224 3. भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 5, पृ. 2225 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org