________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 4 ] [ 307 धर्मास्तिकायादि त्रिक में न कोई पुरुष बैठ सकता है, न सो सकता है, न खड़ा रह सकता है) यावत् न ही करवट बदल सकता है ; (क्योंकि ये तीनों ही द्रव्य अमूर्त हैं, फिर भी) इनमें अनन्त जीव अवगाढ हैं। विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में धर्मास्तिकायादि पर किसी व्यक्ति को बैठने, लेटने आदि की अशक्यता को कूटगारशाला के दृष्टान्त द्वारा समझाया गया है / कठिन शब्दार्थ- एसि—इस पर / चक्किया-- समर्थ हो सकता है। प्रासइत्तए-बैठने या ठहरने में / सइत्तए सोने में या शयन करने में / चिट्टित्तए-खड़ा रहने या ठहरने में। निसीइत्तए-नोचे बैठने में / तुट्टित्तए-करवट बदलने में या लेटने में / पलीवेज्जा-जला दे / अन्नमनघडताए–एक दूसरे के साथ एकमेक (एकरूप) होकर / पदीवलेस्सासु-दीपकों की प्रभानों पर बहुसम, सर्वसंक्षिप्त, विग्रह-विग्रहिक लोक का निरूपण : बारहवाँ बहुसमद्वार 67. कहि ण भंते ! लोए बहुसमे ? कहि णं भंते ! लोए सम्वविग्गहिए पन्नते ? गोयमा ! इमोसे रयणप्पभाए पुढबीए उवरिमहेढिल्लेसु खुडुगपयरेसु, एत्थ णं लोए बहुसमे, एत्थ णं लोए सव्वविगहिए पन्नत्ते। 67 प्र.] भगवन् ! लोक का बहु-समभाग कहाँ है ? (तथा) हे भगवन् ! लोक का सर्वसंक्षिप्त भाग कहाँ कहा गया है ? [67 उ. गौतम ! इस रत्नप्रभा (नरक-) पृथ्वी के ऊपर के और नीचे के क्षुद्र (लघु) प्रतरों में लोक का बहुसम भाग है और यहीं लोक का सर्वसंक्षिप्त (सबसे संकीर्ण) भाग कहा गया है / 68. कहि णं भंते ! विग्गहविग्गहिए लोए पन्नते ? गोयमा ! विग्गहकंडए, एत्थ णं विग्गहविग्गहिए लोए पन्नत्ते / [68 प्र.| भगवन् ! लोक का विग्रह-विग्रहिक भाग (लोक रूप शरीर का वक्रतायुक्त भाग) कहाँ कहा गया है ? [68 उ.] गौतम ! जहाँ विग्रह-कण्डक (वक्रतायुक्त अवयव) है, वहीं लोक का विग्रह. विग्रहिक भाग कहा गया है। विवेचन--प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. 67-68) में बारहवें बहुसमद्वार के माध्यम से लोक के बहुसमभाग एवं विग्रह-विग्रहिक भाग के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तरी प्रस्तुत की गई है / कठिन शब्दार्थ -- बहुसमे अत्यन्त सम, प्रदेशों की वृद्धि-हानि से रहित भाग / सन्धविग्गहिएसर्वसंक्षिप्तभाग, सब से छोटा या संकीर्ण भाग / विग्गह-विग्गहिए-विग्रह (वक्रतायुक्त)-विग्रहिक(शरीर का भाग)। विग्गहकंडए-विग्रहकण्डक बक्रतायुक्त अवयव / 1. भगवतीसूत्र प्रमेयचन्द्रिका टीका, भा. 10, पृ. 709 2. (क) भगवती. अ. वत्ति, पत्र 616 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2223 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org