________________ अष्टम शतक : उद्देशक-९] 10. से कि तं भायणपच्चइए ? भायणपच्चइए, जं णं जुण्णसुरा-जुण्णगुल-जुण्णतंदुलाणं भायणपच्चइएणं बंधे समुप्पज्जइ जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं संखेज्ज कालं / से तं भायणपच्चइए। [10 प्र.] भगवन् ! भाजन-प्रत्यायक-सादि-विस्रसाबन्ध किसे कहते हैं ? [10 उ.] गौतम ! पुरानो सुरा (मदिरा), पुराने गुड, और पुराने चावलों का भाजनप्रत्ययिक-सादि-वित्रसाबन्ध समुत्पन्न होता है / वह जघन्यतः अन्तमुहूर्त तक और उत्कृष्टतः संख्यात काल तक रहता है / यह है भाजन-प्रत्ययिक-सादि-विस्त्रसाबन्ध का स्वरूप / 11. से कि तं परिणामपच्चइए ? परिणामपच्चइए, जं णं अब्भाणं अन्भरुक्खाणं जहा ततियसए (स. 3 उ. 7 सु. 4 [5]) जाव अमोहाणं परिणामपच्चइएणं बंधे समुपज्जइ जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं छम्मासा / से तं परिणामपच्चइए / से तं सादीयवीससाबंधे / से तं वोससाबंधे। [11 प्र.] भगवन् ! परिणामप्रत्ययिक-सादि-विस्रसाबन्ध किसे कहते हैं ? {11 उ.] गौतम ! (इसी शास्त्र के तृतीय शतक उद्देशक 7 सू. 4-5) में जो बादलों (अभ्रों) का, अभ्रवृक्षों का यावत् अमोधों आदि के नाम कहे गए हैं, उन सबका, परिणाम-प्रत्ययिक (सादि-वित्रसा) बन्ध समुत्पन्न होता है। वह बन्ध जघन्यतः एक समय तक और उत्कृष्टतः छह मास तक रहता है। यह हुआ परिणाम-प्रत्यायिक-सादि-विस्रसाबन्ध का स्वरूप / और यह हुअा विस्रसाबन्ध का कथन / विवेचन-विस्रसाबन्ध के भेद-प्रभेद और उनका स्वरूप--प्रस्तुत दस सूत्रों (सू. 2 से 11 तक) में विस्रसाबन्ध के सादि-अनादिरूप दो भेद, तत्पश्चात् अनादिविस्रसाबन्ध के तीन और सादि विस्रसाबन्ध के तीन भेदों के प्रकार और स्वरूप का निरूपण किया गया है / त्रिविध अनादि विलसाबन्ध का स्वरूप --धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और प्राकाशास्तिकाय की अपेक्षा से अनादि विस्रसाबन्ध तीन प्रकार का कहा गया है / धर्मास्तिकाय के प्रदेशों का उसी के दूसरे प्रदेशों के साथ सांकल और कड़ी की तरह जो परस्पर एक देश से सम्बन्ध होता है, वह धर्मास्तिकाय-अन्योन्य-अनादिविस्रसाबन्ध कहलाता है। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय के वित्रसाबन्ध के विषय में समझना चाहिए / धर्मास्तिकाय के प्रदेशों का परस्पर जो सम्बन्ध होता है, वह देशबन्ध होता है, नीरक्षीरवत् सर्वबन्ध नहीं, क्योंकि यदि सर्वबन्ध माना जाएगा तो एक प्रदेश में दूसरे समस्त प्रदेशों का समावेश हो जाने से धर्मास्तिकाय एक प्रदेशरूप ही रह जाएगा, असंख्यप्रदेश रूप नहीं रहेगा; जो कि सिद्धान्त से प्रसंगत है / अत: धर्मास्तिकाय आदि तीनों का परस्पर देशबन्ध ही होता है, सर्वबन्ध नहीं। त्रिविध-सादिविस्त्रसाबन्ध का स्वरूप-सादिविस्रसाबन्ध के बन्धनप्रत्ययिक, भाजन-प्रत्ययिक और परिणामप्रत्ययिक, ये तीन भेद कहे गए हैं। बन्धन अर्थात् विवक्षित स्निग्धता आदि गुणों के निमित्त से परमाणुओं का जो बन्ध सम्पन्न होता है, उसे बन्धनप्रत्यायिक बन्ध कहते हैं, भाजन का अर्थ है-प्राधार / उसके निमित्त से जो बन्ध सम्पन्न होता है, वह भाजतप्रत्ययिक है। जैसे-धड़े में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org