________________ 362] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र रखी हुई पुरानी मदिरा गाढ़ी हो जाती है, पुराने गुड़ और पुराने चावलों का पिण्ड बंध जाता है, वह भाजनप्रत्ययिकबन्ध कहलाता है। परिणाम अर्थात् रूपान्तर (हो जाने) के निमित्त से जो बन्ध होता है, उसे परिणाम-प्रत्ययिक बन्ध कहते हैं।' अमोघ शब्द का अर्थ-सूर्य के उदय और अस्त के समय उसकी किरणों का एक प्रकार का आकार 'प्रमोघ' कहलाता है। बन्धन-प्रत्यायिकबन्ध का नियम-सामान्यतया स्निग्धता और रूक्षता से परमाणुओं का बन्ध होता है। किस प्रकार होता है ? इसका नियम क्या है ? यह समझ लेना आवश्यक है। एक आचार्य ने इस विषय में नियम बतलाते हुए कहा है--समान स्निग्धता या समान रूक्षता वाले स्कन्धों का बन्ध नहीं होता, विषम स्निग्धता या विषम रूक्षता में बन्धन होता है। स्निग्ध का द्विगुणादि अधिक स्निग्ध के साथ तथा रूक्ष का द्विगुणादि अधिक रूक्ष के साथ बन्ध होता है / स्निग्ध का रूक्ष के साथ जघन्यगुण को छोड़ कर सम या विषम बन्ध होता है / अर्थात एकगुण स्निग्ध या एकगुण रूक्षरूप जघन्य गुण को छोड़ कर शेष सम या विषम गुण वाले स्निग्ध या रूक्ष का परस्पर बन्ध होता है। सम स्निग्ध का सम स्निग्ध के साथ तथा सम रूक्ष का सम रूक्ष के साथ बन्ध नहीं होता / उदाहरणार्थ एकगुण स्निग्ध का एकगुण स्निग्ध के साथ अथवा एकगुण स्निग्ध का दोगुण स्निग्ध के साथ बन्ध नहीं होता है। दोगुण स्निग्ध का दोगुण स्निग्ध के साथ या तीनगुण स्निग्ध के साथ बन्ध नहीं होता, किन्तु चारगुण स्निग्ध के साथ बन्ध होता है। जिस प्रकार स्निग्ध के सम्बन्ध में कहा, उसी प्रकार रूक्ष के विषय में समझ लेना चाहिए। एकगुण को छोड़ कर परस्थान में स्निग्ध और रूक्ष के परस्पर सम या विषम में दोनों प्रकार के बन्ध होते हैं। यथा-एकगुण स्निग्ध का एकगुण रूक्ष के साथ बन्ध नहीं होता, किन्तु द्वयादि गुणयुक्त रूक्ष के साथ बन्ध होता है, इसी तरह द्विगुण स्निग्ध का द्विगुण रूक्ष अथवा त्रिगुणरूक्ष के साथ बन्ध होता है / इस प्रकार सम और विषम दोनों प्रकार के बन्ध होते हैं।' प्रयोगबन्ध : प्रकार, भेद-प्रभेद तथा उनका स्वरूप-- 12. से कि तं पयोगबंधे ? पयोगबंधे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-अणाईए वा अपज्जवसिए 1, सादीए वा अपज्जवसिए 2, सादीए वा सपज्जवसिए 3 / तत्थ णं जे से अणाईए अपज्जवसिए से णं अटण्हं जीवभज्झपएसाणं / 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 395 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 3, पृ. 1473 2. (क) वही, पत्रांक 395 (ख) समनिद्धयाए बन्धो न होई, समलुक्खयाए वि ण होई। वेमायनिद्धलुक्खत्तररोण बन्धो उ खंधाणं // 1 // निद्धस्स निदण दुयाहिएणं, लुक्खस्स लुक्खेण दुयाहिएणं / निद्धस्स लुक्खेण उवेइ बन्धो, जहस्तवज्जो विसमो समो वा // 2 // - भगवती. अ. वृत्ति. पत्र 395 में उद्धृत [ग] स्निग्धरूक्षत्वाद् बन्धः / न जघन्यगुणानाम् / गुणमाम्ये सदृशानाम् / बन्धे समाधिको पारिणामिकौ च / .-तत्त्वार्थसूत्र, अ. 5 सू. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org