________________ 288] ध्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र कायिक अनन्त हैं, द्वीन्द्रिय यावत् वैमानिक असंख्यात हैं तथा सिद्ध अनन्त हैं। इस कारण कहा जाता है कि " यावत् जीवद्रव्य अनन्त हैं। विवेचन-प्रज्ञापनासूत्र का प्रतिदेश- यहाँ जो प्रज्ञापनासूत्र के पांचवें पद का अतिदेश किया गया है, वहाँ पांचवें पद में जीवपर्यव के पाठ हैं, वैसे अजीवपर्यव के पाठ भी हैं। यथा(प्र.) भगवन् ! अरूपी अजीवद्रव्य कितने प्रकार के कहे गए हैं ? (उ.) गौतम ! वे दस प्रकार के कहे गए हैं / यथा--धर्मास्तिकाय"इत्यादि तथा (प्र.) रूपी अजीवद्रव्य कितने प्रकार के कहे गए हैं ? (उ.) गौतम ! वे चार प्रकार के कहे गए हैं / यथा स्कन्ध, देश, प्रदेश, परमाणु / (प्र.) भगवन् ! अजीवद्रव्य क्या संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं ? (उ.) गौतम ! वे संख्यात नहीं, असंख्यात नहीं, अनन्त हैं / (प्र.) भगवन् ! ऐसा क्यों कहते हैं कि रूपी अजीवद्रव्य संख्यात, असंख्यात नहीं, अनन्त हैं ? (उ.) गौतम ! परमाणु अनन्त हैं, द्विप्रदेशिक, त्रिप्रदेशिक यावत् अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध अनन्त हैं, इसलिए / ' जीव और चौवीसदण्डगवर्ती जीवों की अजीवद्रव्य परिभोगतानिरूपण 4. [1] जीवदव्वाणं भंते ! अजीवदव्या परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति, अजीवदवाणं जीवदव्या परिभोगत्ताए हन्वमागच्छंति ? गोयमा ! जीवदव्वाणं अजीवदव्वा परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति, नो अजीवदवाणं जीवदव्वा परिभोगत्ताए हन्वमागच्छति / [4-1 प्र.] भगवन् ! अजीव-द्रव्य, जीवद्रव्यों के परिभोग में आते हैं, अथवा जीवद्रव्य, अजीवद्रव्यों के परिभोग में आते हैं ? 4-1 उ.] गौतम ! अजीवद्रव्य, जीवद्रव्यों के परिभोग में आते हैं, किन्तु जीवद्रव्य, अजीवद्रव्यों के परिभोग में नहीं आते / [2] से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चति जाव हठवमागच्छति ? गोयमा ! जीवदम्वा गं अजीवदव्वे परियादियंति, अजीवदव्वे परियादिइत्ता ओरालियं वेउब्वियं आहारगं तेयगं कम्मगं सोतिदिय जाव फासिदिय मणजोग वइजोग कायजोग प्राणापाणुत्तं च निव्वत्तयंति, से तेणठेणं जाव हव्वमागच्छंति / 4.2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से प्राप ऐसा कहते हैं कि यावत्-(जीवद्रव्य, अजीवद्रव्यों के परिभोग के रूप में) नहीं आते ? [4-2 उ.] गौतम ! जीवद्रव्य, अजीवद्रव्यों को ग्रहण करते हैं। ग्रहण करके औदारिक, वैक्रिप, आहारक, तैजस और कार्मण-इन पांच शरीरों के रूप में, श्रोत्रेन्द्रिय यावत् स्पर्शेन्द्रिय-- इन पांच इन्द्रियों के रूप में, मनोयोग, वचनयोग और काययोग तथा श्वासोच्छवास के रूप में परिणमाते (निष्पन्न करते) हैं / हे गौतम ! इस कारण से ऐसा कहा जाता है कि अजीवद्रव्य, जीव. द्रव्यों के परिभोग में आते हैं, किन्तु जीवद्रव्य, अजीवद्रव्यों के परिभोग में नहीं आते हैं / 1 (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 855-56 (ख) प्रज्ञापनापद 5. सू. 501-3, पृ. 151 (मा. वि. प्रकाशन) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org