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________________ पन्द्रहवां शतक] करने वाला मंखलिपुत्र गोशालक है, यावत् छद्मस्थ अवस्था में ही काल-धर्म को प्राप्त हुआ है। श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ही वास्तव में जिन हैं, जिनप्रलापी हैं यावत् जिन शब्द का प्रकाश करते हुए विचरते हैं।' इस प्रकार महती प्रऋद्धि (बड़ी विडम्बना और असत्कार (असम्मान) पूर्वक मेरे मृत शरीर का नोहरण (बाहर निष्क्रमण) करना; यों कहकर गोशालक कालधर्म को प्राप्त हुआ। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र (106) में गोशालक को मरण को अन्तिम (सातवीं) रात्रि में सम्यक्त्व प्राप्त हुया और उसने अपनी अजित प्रतिष्ठा एवं मानापमान की परवाह न करते हुए आजीविक स्थविरों के समक्ष अपनी वास्तविकता प्रकट करके तदनुसार अप्रतिष्ठापूर्वक मरणोत्तर क्रिया करने का किया गया निर्देश अंकित है / ऐसी सद्बुद्धि पहले क्यों नहीं, पीछे क्यों ?--गोशालक को भगवान् महावीर के पास रहते हुए तथा शिष्य कहलाने के बावजूद भी ऐसी सद्बुद्धि पहले नहीं आई, उसका कारण घोर मिथ्यात्वमोह का उदय था। फलत: मिथ्यात्वरूपी भयंकर शत्रु के कारण ही पूर्वोक्त स्थिति हो गई थी। जब सम्यक्त्वरत्न प्राप्त हुआ, तब सारी स्थिति ही पूर्णतया पलट गई / आजीविक स्थविरों के समक्ष उसने अब वास्तविक स्थिति प्रकट कर दी। यदि प्रायुष्य की स्थिति कुछ अधिक होती तो निश्चित ही वह भगवान महावीर के चरणों में गिर कर सच्चे अन्तःकरण से क्षमायाचना करता और आलोचना-प्रायश्चित्त ग्रहण कर शुद्ध होता।' कठिन शब्दार्थ- उच्चावय-सवह-साविए-अनेक प्रकार के शपथों से युक्त (शापित)। सुबेणं--मूज या छाल की रस्सी से / उट्ठभह-थूकना / आकड्ढ-विकडिइधर-उधर घसीटते हुए। आजीविक स्थविरों द्वारा अप्रतिष्ठापूर्वक गुप्त मरणोत्तरक्रिया करके प्रकट में प्रतिष्ठापूर्वक मरणोत्तरक्रिया 110. तए णं ते आजीविया थेरा गोसालं मंखलिपुत्तं कालगयं जाणित्ता हालाहलाए कुंभकारीए कुभकारावणस्स दुवाराई पिहेति; दु. पि० 2 हालाहलाए कुभकारोए कुभकारावणस्स बहुमज्झदेसभाए सावत्थि नगरि आलिहंति, सा० आ० 2 गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स सरीरगं वामे पाए सुबेणं बंधति, वा० बं० 2 तिक्खुत्तो मुहे उहंति, ति० उ० 2 सावत्थीए नगरीए सिंग्घाडग० जाव पहेसु आकविकड्डि करेमाणा णीयं णीयं सद्देणं उग्घोसेमाणा उग्घोसेमाणा एवं वयासि–'नो खल देवाणुप्पिया ! गोसाले मंलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावी जाब विहरिए, एस पं गोसाले चेव मंखलिपुत्ते समणघायए जाव छउमत्थे चेव कालगते, समणे भगवं महावीरे जिणे जिणप्पलावी जाव विहरई'। सवहपडिमोक्खणगं करेंति, सवहपडिमोक्खणगं करेत्ता दोच्चं पि पूयासक्कारथिरीकरणट्टयाए गोसालस्स मंलिपुत्तस्स वामाओ पादानो सुबं मुयंति, सुंबं मु० 2 हालाहलाए कुभकारीए कुभकारावणस्स दुवारवयणाई अवगुणंति, अव० 2 गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स सरीरगं सुरभिणा गंधोदएणं व्हाणेति, त चेव जाव महया इडिसक्कारसमुदएणं गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स सरीरगस्स नोहरणं करेंति। 1. वियाहपण्णत्तिसुत्त भा. 2 पृ. 725-726 / 2. भगवती. अ. वत्ति,पत्र 385 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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