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________________ 143] [च्याश्याप्राप्तिसूत्र 56. [1] तेसि णं भंते ! जीवाणं कति लेस्सागो पन्नत्तानो ? गोयमा ! छल्लेसानो पन्नत्तानो, तं जहा--कण्हलेस्सा जाव सुक्कलेस्सा। [59-1 प्र.] भगवन् ! उन जीवों के कितनी लेश्याएँ कही गई हैं ? [56-1 उ. | गौतम ! उनके छहों लेश्याएँ कही गई हैं / यथा-कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या। [2] दिट्ठी तिविहा वि / तिन्नि नाणा, तिन्नि प्रमाणा भयणाए / जोगो तिविहो वि / सेसं जहा असण्णीणं जाव अणुबंधो। नवरं पंच समुग्धाया आदिल्लगा। वेदो तिविहो वि, अवसेसं तं चेव नाव [59-2] (उनमें) दृष्टियाँ तीनों ही होती हैं। तीन ज्ञान तथा तीन अज्ञान भजना से होते हैं। योग तीनों ही होते हैं। शेष सब यावत् अनुबन्ध तक असंज्ञी के समान समझना। 'विशेष यह है कि समुद्घात आदि के पांच होते हैं तथा वेद तीनों ही होते हैं। शेष सब पूर्ववत् समझना चाहिए। यावत् 60. से णं भंते ! पज्जत्तसंखेज्जवासाउय जाव तिरिक्खजोणिए रयणप्पभ० जाव करेज्जा? गोयमा ! भवादेसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अट्ट भवग्गहणाई। कालाएसेण महन्नेणं दसवाससहस्साई अंतोमुत्तमम्भहियाई, उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाइं चउहि पुवकोडीहि मम्भहियाई / एवतियं कालं सेवेज्जा जाव करेज्जा। [सु० 54 ~60 पढमो गमओ]। 60 प्र.] भगवन् ! वह पर्याप्त संख्येयवर्षायष्क संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीव, रत्नप्रभापृथ्वी में नारकरूप में उत्पन्न हो और फिर संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक हो, तो वह कितने काल तक यावत् गमनागमन करता है ? [60 उ. गौतम ! भव की अपेक्षा जघन्य दो भव और उत्कृष्ट आठ भव तक ग्रहण करता है तथा काल की अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि अधिक चार सागरोपम काल तक सेवन (व्यतीत) करता है और इतने ही काल तक गमनागमन करता है / [सू. 54 से 60 तक प्रथम गमक] 61. पज्जत्तसंखेज्ज जाव जे भविए जहन्नकाल जाव से णं भंते ! केवतिकालद्वितीएसु . उववज्जेज्जा ? गोयमा ! जहन्नेणं दसवाससहस्सद्वितीएसु, उक्कोसेणं वि दसवाससहस्सद्वितीएसु जाव उववज्जेज्जा। [61 प्र.] भगवन ! पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीव रत्नप्रभापृथ्वी में जघन्य स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न हो, तो कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? [61 उ.] गौतम ! वह जघन्य दस हजार वर्ष की स्थिति वाले और उत्कृष्ट भी दस हजार वर्ष की स्थिति वाले (नैरयिकों) में उत्पन्न होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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