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________________ अष्टम शतक : उद्देशक-] [347 जीव के साथ ऐयापथिक कर्मबन्धांश सम्बन्धी चार विकल्प—इसके पश्चात् चार-विकल्पों द्वारा ऐर्यापथिक कर्मबन्धांश सम्बन्धी प्रश्न उठाया गया है / उसका आशय यह है-(१) देश से देशबन्ध--जीव-प्रात्मा के एक देश से, कर्म के एक देश का बन्ध, (2) देश से सर्वबन्ध–जीव के एक देश से सम्पूर्ण कर्म का बन्ध, (3) सर्व से देशबन्ध-सम्पूर्ण जीव प्रदेशों से कर्म के एक देश का बन्ध, और (4) सर्व से सर्वबन्ध सम्पूर्ण-जीव प्रदेशों से सम्पूर्ण कर्म का बन्ध–इनमें से चौथे विकल्प से ऐर्यापथिककर्म का बन्ध होता है, क्योंकि जीव का ऐसा ही स्वभाव है, शेष तीन विकल्पों से जीव के साथ कर्म का बन्ध नहीं होता। साम्परायिक कर्मबन्ध : स्वामी, कर्ता, बाधकाल, बन्धविकल्प तथा बन्धाश-बन्धस्वामीकषाय निमित्तक कर्मबन्धरूप साम्परायिक कर्मबन्ध के स्वामी के विषय में प्रथम प्रश्न में सात विकल्प उठाए गए हैं, उनमें से (1) नैरयिक, (2) तिर्यंच, (3) तिर्यंची, (4) देव और (5) देवी, ये पांच तो सकषायी होने से सदा साम्परायिकबन्धक होते हैं, (6) मनुष्य-नर और (7) मनुष्य-नारी ये दो सकषायो अवस्था में साम्परायिक-कर्मबन्धक होते हैं, अकषायी हो जाने पर साम्परायिकबन्धक नहीं होते। बन्धकर्ता-द्वितीय प्रश्न में साम्परायिक कर्मबन्धकर्ता के विषय में एकत्वविवक्षित और बहुत्वविवक्षित स्त्री, पुरुष, नपुसक आदि को लेकर सात विकल्प उठाए गए हैं, जिसके उत्तर में कहा गया है—एकत्वविवक्षित और बहुत्वविवक्षित स्त्री, पुरुष और नपुंसक, ये 6 सदैव साम्परायिक कर्मबन्धकर्ता होते हैं, क्योंकि ये सब सवेदी हैं / अवेदी कादाचित्क (कभी-कभी) पाया जाता है, इसलिए वह कदाचित् साम्परायिक कर्म बांधता है। तात्पर्य यह है-स्त्री आदि पूर्वोक्त छह साम्परायिक कर्म बांधते हैं, अथवा स्त्री आदि 6 और वेदरहित एक जीव (क्योंकि वेदरहित एक जीव भी पाया जाता है, इसलिए) साम्परायिक कर्म बांधते हैं, अथवा पूर्वोक्त स्त्री प्रादि छह और वेदरहित बहुत जीव (क्योंकि वेदरहित जीव बहुत भी पाए जा सकते हैं, इसलिए) साम्परायिक कर्म बांधते हैं। तीनों वेदों का उपशम या क्षय हो जाने पर भी जीव जब तक यथाख्यात नहीं करता, तब तक वह वेदरहित जीव साम्परायिक बन्धक होता है / यहाँ पूर्व प्रतिपन्न और प्रतिपद्यमान की विवक्षा इसलिए नहीं की गई है कि दोनों में एकत्व और बहुत्व पाया जाता है, तथा वेदरहित हो जाने पर साम्परायिक बन्ध भी अल्पकालिक हो जाता है। साम्परायिक कर्मबन्धक के भी ऐर्यापथिक कर्मबन्धक की तरह 26 भंग होते हैं / वे पूर्ववत् समझ लेने चाहिए। साम्परायिक कर्मबन्ध-सम्बन्धी कालिक विचार-काल की अपेक्षा ऐर्यापथिक कर्मबन्ध सम्बन्धी 8 भंग प्रस्तुत किये गए थे, लेकिन साम्परायिक कर्मबन्ध अनादि काल से है। इसलिए भतकाल सम्बन्धी जो 'ण बन्धी-नहीं बांधा' इस प्रकार के 4 भंग हैं, वे इसमें नहीं बन सकते / जो 4 भंग बन सकते हैं, उनका प्राशय इस प्रकार है-१-'प्रथम भंग-बांधा था, बांधता है, बांधेगा'-यह भंग यथाख्यातचारित्र-प्राप्ति से दो समय पहले तक सर्वसंसारी जोवों में पाया जाता है, क्योंकि भूतकाल में उन्होंने साम्परायिक कर्म बांधा था, वर्तमान में बांधते हैं और भविष्य में भी यथाख्यातचारित्र-प्राप्ति के पहले तक बांधेगे। यह प्रथम भंग अभव्यजीव की अपेक्षा भी घटित हो सकता है। २-द्वितीय भंग-बांधा था, बांधता है, नहीं बांधेगा-यह भंग भव्य जीव की अपेक्षा से है। मोहनीयकर्म के क्षय से पहले उसने साम्परायिक कर्म बांधा था, वर्तमान में बांधता है, और आगामीकाल में मोहक्षय की अपेक्षा नहीं बांधेगा / ३-ततीय भंग-बांधा था, नहीं बांधता, बांधोगा यह भंग उपशम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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