________________ 348 ] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र श्रेणो प्राप्त जीव को अपेक्षा है। उपशमश्रेणी करने के पूर्व उसने साम्परायिक कर्म बांधा था, वर्तमान में उपशान्तमोह होने से नहीं बांधता और उपशम श्रेणी से गिर जाने पर आगामीकाल में पुनः बांधेगा। ४.-चतर्थ भंग-बांधा था, नहीं बांधता, नहीं बांधेगा'—यह भंग क्षपकणी -प्राप्त क्षीणमोह जीव की अपेक्षा से है। मोहनीयकर्मक्षय के पूर्व उसने साम्परायिक कर्म बांधा था, वर्तमान में मोहनीयकर्म का क्षय हो जाने से नहीं बांधता और तत्पश्चात् मोक्ष प्राप्त हो जाने से अागामी काल में नहीं बांधेगा।" साम्परायिक कर्मबन्धक के विषय में सादि-सान्त प्रादि 4 विकल्प---पूर्ववत् सादि-सपर्यवसित (सान्त) ग्रादि 4 विकल्पों को लेकर साम्परायिक कर्मबन्ध के विषय में प्रश्न उठाया गया है / इन चार भंगों में से सादि-अपर्यवसित-(अनन्त) को छोड़ कर शेष प्रथम, तृतीय और चतुर्थ भंगों से जीव साम्परायिक कर्म बांधता है। जो जीव उपशम श्रेणी से गिर गया है और आगामी काल में पुन उपशम श्रेणी या क्षपकश्रेणी को अंगीकार करेगा, उसकी अपेक्षा प्रथम भंग घटित होता है। जो जीव प्रारम्भ में ही क्षपकश्रेणी करने वाला है, उसकी अपेक्षा अनादि-सपर्यवसित नामक तृतीय भंग घटित होता है, तथा अभव्य जीव की अपेक्षा अनादि-प्रपर्यवसित नामक चतुर्थ भंग घटित होता है। सादिअपर्यवसित नामक दूसरा भंग किसी भी जीव में घटित नहीं होता। यद्यपि उपशमश्रेणी से भ्रष्ट जीव सादिसाम्परायिकबन्धक होता है, किन्तु वह कालान्तर में अवश्य मोक्षगामी होता है, उस समय उसमें साम्परायिक कर्म का व्यवच्छेद हो जाता है, इसलिए अन्तरहितता उसमें घटित नहीं होती। बावीस परीषहों का अष्टविध कर्मों में समवतार तथा सप्तविधबन्धकादि के परोषहों को प्ररूपरणा 23. कइ णं भंते ! कम्मपयडीयो पण्णत्तायो ? गोयमा ! अट्ठ कम्मपयडीनो पण्णत्ताश्रो, तं जहा~णाणावरणिज्जं जाव अंतराइयं / [23 प्र.] भगवन् ! कर्मप्रकृतियां कितनी कही गई हैं ? [23 उ.] गौतम ! कर्मप्रकृतियां आठ कही गई हैं / यथा--ज्ञानावरणीय यावत् अन्तराय / 24. कद णं भंते ? परीसहा पण्णत्ता ? गोयमा ! बावीसं परीसहा पण्णत्ता, तं जहा—दिगिछापरीसहे 1, पिवासापरीसहे 2, जाव दसणपरीसहे 22 // [24 प्र.] भगवन् ! परोषह कितने कहे गए हैं ? [24 उ.] गौतम ! परीषह बावीस कहे गए हैं। वे इस प्रकार-१. क्षुधा-परीषह, 2. पिपासा-परीषह यावत् २२---दर्शन-परोषह। 25. एए णं भंते ! बावीसं परोसहा कतिसु कम्मपगडीसु समोयरंति ? गोयमा ! चउसु कम्मपयडीसु समोधरंति, तं जहा-नाणावरणिज्जे, वेयणिज्जे, मोहणिज्जे, अंतराइए। 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 385 से 387 तक 2. भगवतीमूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 388 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org