________________ 612] [भ्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र और देवियों के लिए अर्चनीय, वन्दनीय, नमस्करणोय, पूजनीय, सत्कारयोग्य एवं सम्मानयोग्य हैं / वे कल्याणरूप, मंगलरूप, देवरूप, चैत्यरूप एवं पर्युपासनीय हैं। इसलिए उन (जिन भगवान् की अस्थियों) के प्रणिधान (सान्निध्य) में वह (असुरेन्द्र, अपनी राजधानी की सुधर्मासभा में) यावत् भोग भोगने में समर्थ नहीं है। इसीलिए हे आर्यो ! ऐसा कहा गया है कि असुरेन्द्र यावत् चमर, चमरचंचा राजधानी में यावत् दिव्य भोग भोगने में समर्थ नहीं है। [3] पभू णं अज्जो ! चमरे असुरिंदे असुरकुमारराया चमरचंचाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए चमरंसि सीहासणंसि चउसट्ठीए सामाणियसाहस्सोहिं तावत्तीसाए जाय अन्नेहि य बहूहि असुरकुमारेहि देवेहि य देवोहि य द्धि संपरिबुडे महयाऽहय जाव' भुजमाणे विहरित्तए, केवलं परियारिद्धीए; नो चेव णं मेहुणवत्तियं / [5-3. उ.] परन्तु हे आर्यो ! वह असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर, अपनी चमरचंचा राजधानी की सुधर्मासभा में चमर नामक सिंहासन पर बैठ कर चौसठ हजार सामानिक देवों, त्रायस्त्रिशक देवों और दूसरे बहुत-से असुरकुमार देवों और देवियों से परिवृत होकर महानिनाद के साथ होने वाले नाटय, गीत, वादित्र आदि के शब्दों से होने वाले (राग-रंग रूप) दिव्य भोग्य भोगों का केवल परिवार की ऋद्धि से उपभोग करने में समर्थ है, किन्तु मैथुननिमित्तक भोग भोगने में समर्थ नहीं। विवेचन--समरेन्द्र सुधर्मा सभा में मैथुननिमित्तक भोग भोगने में असमर्थ प्रस्तुत पाँचवें सूत्र में सुधर्मासभा में मैथुन-निमित्तक भोग भोगने की चमरेन्द्र की असमर्थता का सयुक्तिक प्रतिपादन किया गया है / कठिन शब्दों का भावार्थ-वइरामएसु-वज्रमय (हीरों के बने हुए), मोलवट्टसमुग्गएमवृत्ताकार गोल डिब्बों में। जिणसकहाओ-जिन भगवान् की अस्थियाँ / अच्चणिज्जा-अर्चनीय / पज्जुवासणिज्जाओ-उपासना करने योग्य / पणिहाए--प्रणिधान-सान्निध्य में। मेहगवसियंमैथुन के निमित्त / परियारिद्धोए—परिवार की ऋद्धि से अर्थात्- अपने देवी परिवार की स्त्री शब्दश्रवण-रूपदर्शनादि परिचारणा रूप आदि से / ' चमरेन्द्र के सोमादि लोकपालों का देवी-परिवार 6. चमरस्स गं भंते ! असुरिवस्स असुरकुमाररण्णो सोमस्स महारगणो कति अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ ? अज्जो! सत्तारि अग्गम हिसीनो पन्नताओ, तं जहा—कणगा कणगलया चित्तगुत्ता वसुधरा / तत्थ ण एगमेगाए देवीए एगमेगं देविसहस्सं परिवारो पनत्तो। पभू णं ताओ एगमेगा देवी अन्नं एगमेगं देविसहस्सं परिवार विउवित्तए / एवामेव चत्तारि देविसहस्सा, से तं तुडिए / 1. 'जाव' पद सूचित पाठ-"नट्टगीयवाइयतंतोतलतालतुडियघणमुइंगपटुप्पवाइयरवेणं दिवाई भोगभोगाई ति"। अ.व. व्याख्या. पत्र 506 2. विहायपणत्तिसुत्तं (मूल पाठ टिप्पण) भा. 2, पृ. 498 3. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 505-506 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org