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________________ दशम शतक : उद्देशक-५] [613 [6 प्र.] भगवन् ! असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर के लोकपाल सोम महाराज की कितनी अग्रमहिषियाँ हैं ? [6 उ.] पार्यो ! उनके चार अग्रमहिषियों हैं। यथा--कनका, कनकलता, चित्रगुप्ता और वसुन्धरा। इनमें से प्रत्येक देवी का एक-एक हजार देवियों का परिवार है। इनमें से प्रत्येक देवी, एक-एक हजार देवियों के परिवार को विकुर्वणा कर सकती है। इस प्रकार पूर्वापर सब मिल कर चार हजार देवियाँ होती हैं / यह एक त्रुटिक (देवी-वर्ग) कहलाता है / 7. पभू णं भंते ! चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो सोमे महाराया सोमाए रायहाणीए समाए सुहम्माए सोमंसि सोहासणंसि तुडिएणं० ? अवसेसं जहा चमरस्स, नवरं परियारो जहा सूरियाभस्स,' सेसं सं वेब जाव णो चेव णं मेहुणवत्तियं / [7 प्र.] भगवन् ! क्या असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर का लोकपाल सोम महाराजा, अपनी सोमा नामक राजधानी की सुधर्मासभा में, सोम नामक सिंहासन पर बैठ कर अपने उस त्रुटिक (देवियों के परिवारवर्ग) के साथ भोग्य दिव्य-भोग भोगने में समर्थ है ? [7 उ.] (हे आर्यो ! ) जिस प्रकार असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर के सम्बन्ध में कहा गया, उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिए, परन्तु इसका परिवार, राजप्रश्नीय सूत्र में वर्णित सूर्याभदेव के परिवार के समान जानना चाहिए। शेष सब वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए; यावत् वह सोमा राजधानी की सुधर्मा सभा में मैथुननिमित्तक भोग भोगने में समर्थ नहीं है। 8. चमरस्स गं भंते ! जाव रण्णो जमस्स महारणो कति अगमहिसीओ.? एवं चेव, नवरं जमाए रायहाणीए सेसं जहा सोमस्स / [8 प्र.] भगवन् ! चमरेन्द्र के यावत् लोकपाल यम महाराजा की कितनी अग्रम हिषियाँ हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न। 8 उ. (आर्यो ! ) जिस प्रकार सोम महाराजा के सम्बन्ध में कहा है, उसी प्रकार यम महाराजा के सम्बन्ध में भी कहना चाहिए; किन्तु इतना विशेष है कि यम लोकपाल की राजधानी यमा है / शेष सब वर्णन सोम महाराजा के समान जानना चाहिए। 9. एवं वरुणस्स वि, नवरं वरुणाए रायहाणीए / [9] इसी प्रकार (लोकपाल) वरुण महाराजा का भी कथन करना चाहिए। विशेष यही है कि वरुण महाराजा की राजधानी का नाम वरुणा है / (शेष सब वर्णन पूर्ववत् समझना चाहिए / ) 10. एवं वेसमणस्स वि, नवरं वेसमणाए रायहाणीए। सेसं तं चेव जाव णो चेवणं मेहणवत्तियं / [10] इसी प्रकार (लोकपाल) वैश्रमण महाराजा के विषय में भी जानना चाहिए। विशेष इतना ही है कि वैधमण की राजधानी वैश्रमणा है / शेष सब वर्णन पूर्ववत् समझना चाहिए, यावत'वे वहाँ मैथुननिमित्तक भोग भोगने में समर्थ नहीं हैं। ----- .... 1. यहाँ राजप्रश्नीयसूत्रगत सूर्याभदेव का वर्णन जान लेना चाहिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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