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________________ प्रथम शतक : उद्देशक-४ ] [85 एवं खलु मए गोयमा ! दुबिहे कम्मे पण्णत्ते, तं जहा-पदेसकम्मे य, अणुभागकम्मे य / तत्थ णं जं तं पदेसकम्मं तं नियमा वेदेति, तत्थ णं जं तं अणुभागकम्मं तं प्रत्थेगइयं वेदेति, प्रत्येगइयं नो वेएइ / णायमेतं अरहता, सुतमेत अरहता, विण्णायमेतं अरहता--"इमं कम्मं अयं जीवे प्रभोवगमियाए वेदणाए वेइस्सइ, इमं कम्मं अयं जीवे उवक्कमियाए वेदणाए वेइस्सइ / श्रहाकम्म अधानिकरणं जहा जहा तं भगवता दिद्रुतहा तहा तं विप्परिणमिस्सतीति / से तेणढणं गोतमा ! नेरइयस्स वा 4 जाव मोक्खो। 6 प्र.] भगवन् ! नारक, तिर्यञ्चयोनिक, मनुष्य या देव ने जो पापकर्म किये हैं, उन्हें भोगे (वेदे) बिना क्या मोक्ष (छुटकारा) नहीं होता ? [6 उ.] हाँ गौतम ! नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव ने जो पापकर्म किये हैं, उन्हें भोगे बिना मोक्ष नहीं होता। [प्र. भगवन् ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि नारक यावत् देव को कृतकर्म भोगे बिना मोक्ष नहीं होता? [1] गौतम ! मैंने कर्म के दो भेद बताए हैं। वे इस प्रकार हैं—प्रदेशकर्म और अनुभागकर्म / इनमें जो प्रदेशकर्म है, वह अवश्य (नियम से) भोगना पड़ता है, और इनमें जो अनुभागकर्म है, वह कुछ वेदा (भोगा) जाता है, कुछ नहीं वेदा जाता। यह बात अर्हन्त द्वारा ज्ञात है, स्मृत (अनुचिन्तित या प्रतिपादित) है, और विज्ञात है, कि यह जीव इस कर्म को प्राभ्युपगमिक वेदना से वेदेगा और यह जीव इस कर्म को औपक्रमिक वेदना से वेदेगा। बाँधे हुए कर्मों के अनुसार, निकरणों के अनुसार जैसा-जैसा भगवान् ने देखा है, वैसा-वैसा वह विपरिणाम पाएगा। इसलिए गौतम ! इस कारण से मैं ऐसा कहता हूँ कि यावत् किये हुए कर्मों को भोगे बिना नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य या देव का मोक्ष--छुटकारा नहीं है / विवेचन-कृतकर्म भोगे बिना छुटकारा नहीं प्रस्तुत सूत्र में कृतकर्मफल को अवश्य भोगना पड़ता है, इसी सिद्धान्त का विशद निरूपण किया गया है। _प्रदेशकर्म-जीव के प्रदेशों में ओतप्रोत हुए --दूध-पानी की तरह एकमेक हुए कर्मपुद्गल / प्रदेशकर्म निश्चय ही भोगे जाते हैं। विपाक अर्थात् अनुभव न होने पर भी प्रदेशकर्म का भोग अवश्य होता है। अनुभागकर्म-उन प्रदेशकर्मों का अनुभव में आने वाला रस / अनुभागकर्म कोई वेदा जाता है, और कोई नहीं वेदा जाता / उदाहरणार्थ-जब आत्मा मिथ्यात्व का क्षयोपशम करता है, तब प्रदेश से तो वेदता है, किन्तु अनुभाग से नहीं वेदता / यही बात अन्य कर्मों के विषय में समझनी चाहिए। चारों गति के जीव कृतकर्म को अवश्य भोगते हैं, परन्तु किसी कर्म को विपाक से भोगते हैं और किसी को प्रदेश से भोगते हैं। प्राभ्युपगमिकी वेदना का अर्थ- स्वेच्छापूर्वक, ज्ञानपूर्वक कर्मफल भोगना है / दीक्षा लेकर ब्रह्मचर्य पालन करना, भूमिशयन करना, केशलोच करना, बाईस परिषह सहना, तथा विविध प्रकार का तप करना इत्यादि वेदना जो ज्ञानपूर्वक स्वीकार की जाती है, वह भी आभ्युपगमिकी वेदना कहलाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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