________________ उन्नीसवां शतक : उद्देशक ] [799 छह प्रकार का लेश्या-करण है / तीन प्रकार का दृष्टि-करण है / तीन प्रकार का वेदकरण कहा गया है, यथा---स्त्री-वेद-करण, पुरुष-वेद-करण और नपुंसक-वेद-करण / नैरयिक आदि से लेकर यावत् वैमानिक-पर्यन्त चौबीस दण्डकों में इन सब करणों की प्ररूपणा करनी चाहिए, विशेष यह कि जिसके जो और जितने करण हों, वे सब कहने चाहिए। विवेचन-शरीरादि करणों को प्ररूपणा-शरीर पांच हैं--प्रौदारिक, वैक्रिय, प्राहारक, तैजस और कामण / इन्द्रिय पांच हैं--श्रोत्रेन्द्रिय, चारिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय / चार प्रकार की भाषा-सत्यभाषा, असत्यभाषा, मिश्रभाषा और व्यवहारभाषा / चार प्रकार का मन-सत्यमनोयोग, असत्यमनोयोग, मिथमनोयोग और व्यवहारमनोयोग / चार प्रकार का कषायक्रोध, मान माया, लोभ / चार संज्ञाएँ---माहारसंज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा और परिग्रह-संज्ञा / सात प्रकार का समुद्घात-वेदनीय, कषाय, मारणान्तिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और केवली-समुद्घात / छह लेश्याएँ-कृष्ण, नील, कापोत, तेजो, पद्म और शुक्ल / तीन दृष्टियाँ-सम्यग्दृष्टि, मिथ्यावृष्टि और मिश्रदृष्टि / तीन वेद-स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद / इस प्रकार शरीर से लेकर वेद क रणतक द्रव्यकरण के अन्तर्गत हैं।' प्राणातिपात-करण : पांच भेद, चौबीस दण्डकों में निरूपण 9. कतिविधे णं भंते ! पाणातिवायकरणे पन्नत्ते ? गोयमा ! पंचविधे पाणातिवायकरणे पन्नत्ते, तं जहा-एगिदियपाणातिवायकरणे जाय पंचेंदियपाणातिवायकरणे। [प्र.] भगवन् ! प्राणातिपातकरण पांच प्रकार का कहा गया है। यथा--एकेन्द्रियप्राणातिपातकरण यावत् पंचेन्द्रिय-प्राणातिपातकरण / 10, एवं निरवसेसं जाव वेमाणियाणं / [10] इस प्रकार (नै रयिकों से लेकर) यावत्-वैमानिकों तक (चौबीस दण्डकों में इन सब (पंचविध प्राणातिपात) का कथन करना चाहिए / विवेचन-पंचविध प्राणातिपातकरण--एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक जीव पांच प्रकार के हैं, इसलिए इनके प्राणातिपातरूप करण भी पांच प्रकार के बताए हैं। ये पंचविध प्राणातिपातकरण समग्र संसारी-जीवों में पाए जाते हैं। ये भावकरण के अन्तर्गत हैं।' पुद्गलकरण : भेद-प्रभेद-निरूपण 11. कइविधे गं भंते ! पोग्गलकरणे पन्नत्ते? गोयमा ! पंचविधे पोग्गलकरणे पन्नते, तं जहा-वणकरणे गंधकरणे रसकरणे फासकरणे संठाणकरणे। [11 प्र.] भगवन् ! पुद्गल करण कितने प्रकार का कहा गया है ? 1. भगवती. प्रेमयनन्द्रिका टीका भाग. 13. प. 456-457 2. भगसती. प्रमेयचन्द्रिका टीका भाग 13, पृ. 462 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org