________________ [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र तिर्यंचपंचेन्द्रिय जीवों और नारकों में अन्तर--नारकों में जहाँ 27 भंग कहे गए हैं, वहाँ इनमें अभंगक कहना चाहिए, क्योंकि क्रोधादि-उपयुक्त पंचेन्द्रियतिर्यच एक साथ बहुत पाए जाते हैं, नारकों में जहाँ 80 भंग कहे गए हैं, वहाँ इनमें भी 80 भंग होते हैं। इनमें आहारक को छोड़कर चार शरीर, वज्र ऋषभनाराचादि छह संहनन तथा 6 संस्थान एवं कृष्णादि छहों लेश्याएँ होती हैं। मनुष्यों और नारकों के कथन में अन्तर-जिन द्वारों में नारकों के 80 भंग कहे हैं, उनमें मनुष्यों के भी 80 भंग होते हैं। एक समय अधिक जघन्य स्थिति से लेकर संख्यात समय अधिक तक की जघन्य स्थिति में, जघन्य तथा एक प्रदेशाधिक जघन्य अवगाहना से लेकर संख्यातप्रदेशाधिक जघन्य अवगाहना में, और मिश्रदृष्टि में भी नारकों के समान 80 भंग ही होते हैं। जहाँ नारकों के 27 भंग कहे हैं, वहाँ मनुष्यों में अभंगक हैं, क्योंकि मनुष्य सभी कषायों से उपयुक्त बहुत पाए जाते हैं। मनुष्यों में शरीर पांच, संहनन छह, संस्थान छह, लेश्याएँ छह, दृष्टि तीन, ज्ञान पांच, अज्ञान तीन प्रादि होते हैं। आहारक शरीर वाले मनुष्य अत्यल्प होने से 80 भंग होते हैं / केवलज्ञान में कषाय नहीं होता। चारों देवों सम्बन्धी कथन में अन्तर--भवनपति देवों की तरह शेष तीन देवों का वर्णन समझना / ज्योतिष्क और वैमानिकों में कुछ अन्तर है। ज्योतिष्कों में केवल एक तेजोलेश्या होती है, जबकि वैमानिकों में तेजो, पद्म और शुक्ल, ये तीन शुभलेश्याएँ पाई जाती हैं। वैमानिकों में नियमतः तीन ज्ञान, तीन अज्ञान पाए जाते हैं। असंज्ञी जीव ज्योतिष्क देवों में उत्पन्न नहीं होते, इसलिए उनमें अपर्याप्त अवस्था में भी विभंगज्ञान होता है / // प्रथम शतक : पंचम उद्देशक समाप्त / / 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 73 से 77 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org