________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 2] 675 रवेणं हस्थिणापुर नगरं मज्झमझेणं जहा गंगदत्तो (स० 16 उ० 5 सु० 16) जाव प्रालित्ते णं भंते ! लोए, पलित्ते णं भंते ! लोए, जाव प्राणुगामियत्ताए भविस्स ति, तं इच्छामि गं भंते ! गमसहस्सेणं सद्धि सयमेव पन्चावियं जाव धम्ममाइक्खितं / . "तए णं मुणिसुन्वए अरहा कत्तियं सेट्टि गमट्ठसहस्सेणं सद्धि सयमेव पवावेइ जाव धम्ममाइक्खइ--एवं देवाणुपिया! गंतव्वं, एवं चिट्टियन्वं जाव संजमियव्वं / "तए णं से कत्तिए सेट्टी नेगमटुसहस्सेणं सद्धि मणिसुव्वयस्स अरहो इमं एयारूवं धम्मियं उवदेसं सम्म संपडिवज्जति तमाणाए तहा गच्छति जाव संजमति / / "तए णं से कत्तिए सेट्ठी णेगमट्ठसहस्सेणं सद्धि प्रणगारे जाए इरियासमिए जाव गुत्तबंभचारी / 3-4] तदनन्तर कार्तिक श्रेष्ठी ने (शतक 16 उ. 5 सू. 16 में उल्लिखित) गंगदत्त के समान विपुल अशनादि आहार तैयार करवाया, यावत् मित्र ज्ञाति यावत् परिवार, ज्येष्ठपुत्र एवं एक हजार आठ व्यापारीगण के साथ उनके आगे-आगे समग्र ऋद्धिसहित यावत् वाद्य-निनाद-पूर्वक हस्तिनापुर नगर के मध्य में से होता हुमा, (शतक 16 उ. 5 सू.१६ में वर्णित) गंगदत्त के समान गृहत्याग करके वह भगवान् मुनिसुव्रत स्वामी के पास पहुँचा यावत् इस प्रकार बोला-भगवन् ! यह लोक चारों ओर से जल रहा है, भन्ते ! यह संसार अतीव प्रज्वलित हो रहा है; (इसमें धर्म ही एकमात्र इहलोक परलोक के लिए हितकर, श्रेयस्कर, मोक्ष ले जाने में समर्थ, एवं) यावत् परलोक में अनुगामी होगा। अतः मैं (ऐसे प्रज्वलित संसार का त्याग कर) एक हजार पाठ वणिकों सहित आप स्वयं के द्वारा प्रवजित होना और यावत् पाप से धर्म का उपदेश-निर्देश प्राप्त करना चाहता हूँ। इस पर श्रीमुनिसुव्रत तीर्थंकर ने एक हजार पाठ वणिक-मित्रों सहित कार्तिक श्रेष्ठी को स्वयं प्रव्रज्या प्रदान की और यावत् धर्म का उपदेश-निर्देश किया कि-देवानुप्रियो ! अब तुम्हें इस प्रकार चलना चाहिए, इस प्रकार खड़े रहना चाहिए आदि, यावत् इस प्रकार संयम का पालन करना चाहिए। एक हजार आठ व्यापारी मित्रों सहित कार्तिक सेठ ने भगवान् मुनिसुव्रत अर्हन्त के इस धार्मिक उपदेश को सम्यक् रूप से स्वीकार किया तथा उन (भगवान्) को प्राज्ञा के अनुसार सम्यक् रूप से चलने लगा, यावत् संयम का पालन करने लगा। - इस प्रकार एक हजार पाठ वणिकों के साथ वह कार्तिक सेठ अनगार बना, तथा ईर्यासमिति प्रादि समितियों से युक्त यावत् गुप्त ब्रह्मचारी बना। विवेचन--प्रस्तुत परिच्छेद [3-4] में कार्तिक सेठ द्वारा व्यापारीगण सहित अभिनिष्क्रमण, हस्तिनापुर के बाहर जहाँ भगवान् मुनि = सुव्रत स्वामी विराजमान थे, वहाँ पहुँचने और अपनी संसार से विरक्ति के उद्गारपूर्वक भगवान् से दीक्षा देने तथा मुनि धर्म का निर्देश करने की प्रार्थना, भगवान् द्वारा दिये गए मुनिधर्म में यतनापूर्वक प्रवृत्ति करने के निर्देश तथा तदनुसार धर्मोपदेश का सम्यक स्वीकार एवं अनगार धर्म की सम्यक् रूप से साधना का वर्णन है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org