SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1941
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 676] (व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र कार्तिक अनगार द्वारा अध्ययन, तप, संलेखनापूर्वक समाधिमरण एवं सौधर्मेन्द्र के रूप में उत्पत्ति [3-5] "तए णं से कत्तिए अणगारे मुणिसुव्ययस्स अरहओ तहारूवाणं थेराणं अंतियं सामाइयमाइयाइं चोद्दस पुवाई अहिज्जइ, सा० अ० 2 बहूहि चउत्थछट्टद्धम० जाव अप्पाणं मावेमाणे बहुपडिपुण्णाई दुवालसवासाइं सामण्णपरियागं पाउणति, ब० पा० 2 भासियाए संलेहणाए अत्ताणं सोसेइ, मा० झो० 2 सद्धि भत्ताई अणसणाए छेदेति, स० छे० 2 आलोइय जाव कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे सोहम्मव.सए विमाणे उववायसभाए देवसयणिज्जसि जाव सक्के देविदत्ताए उववन्न / "तए गं से सक्के देविदे देवराया अहुणोक्वन"। सेसं जहा गंगदत्तस्स (स० 16 उ० 5 सु. 16) जाव अंतं काहिति, नवरं ठिती दो सागरोवमाई सेसं तं चेव / / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति / // अद्वारसमे सए : बीमो उद्देसो समत्तो // 18-2 / / इसके पश्चात् उस कार्तिक अनगार ने तथारूप स्थविरों के पास सामायिक से लेकर चौदह पूर्वो तक का अध्ययन किया। साथ ही बहुत से चतुर्थ (उपवास), छ? (बेले), अट्ठम (तेले) आदि तपश्चरण से आत्मा को भावित करते हुए पूरे बारह वर्ष तक श्रामण्य-पर्याय का पालन किया / अन्त में, उसने एक मास की संल्लेखना द्वारा अपने शरीर को झूषित (कृश) किया, अनशन से साठ भक्त का छेदन किया और बालोचना-प्रतिक्रमण आदि करके प्रात्मशुद्धि की। यावत् काल के समय कालधर्म को प्राप्त कर वह सौधर्मकल्प देवलोक में, सौधर्मावतंसक विमान में रही हुई उपपात सभा में देवशय्या में यावत् शक्र देवेन्द्र के रूप में उत्पन्न हुआ। इसी से कहा गया था-'शक देवेन्द्र देवराज अभी-अभी उत्पन्न हुआ है।' शेष वर्णन शतक 16 उ. 5 सू. 16 में प्रतिपादित गंगदत्त के वर्णन के समान यावत-- 'वह सभी दुःखों का अन्त करेगा,' (यहाँ तक जानना चाहिए।) विशेष यह है कि उसकी स्थिति दो सागरोपम की है / शेष सब वर्णन गंगदत्त के (वर्णन के) समान है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है; यों कह कर श्रीगौतम स्वामी यावत् विचरण करते हैं। विवेचन-इस परिच्छेद (3.5) में कार्तिक अनगार के अध्ययन, तपश्चरण, तथा श्रामण्यपर्याय के पालन की अवधि एवं अन्त में, एकमासिक संल्लेखना द्वारा अपनी आत्मशुद्धिपूर्वक समाधिमरण का और आगामी (इस) भव में देवेन्द्र शक देवराज के रूप में उत्पन्न होने का तथा उसकी स्थिति का संक्षेप में वर्णन है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy