________________ [व्याल्याप्रज्ञप्तिसूत्र [84-2] इस प्रकार इस अभिलाप द्वारा (प्रज्ञापनासूत्र के इक्कीसवें) 'अवगाहना-संस्थानपद' में कहे अनुसार; यावत्-ऋद्धिप्राप्त-प्रमत्तसंयत-सम्यग्दृष्टि-पर्याप्त-संख्येयवर्षायुष्क-कर्मभूमिजगर्भज-मनुष्य के प्राहारकशरीरप्रयोगबन्ध होता है, परन्तु अनुद्धिप्राप्त (ऋद्धि को अप्राप्त), प्रमत्तसंयत-सम्यग्दृष्टि-पर्याप्त संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिज-गर्भज-मनुष्य के नहीं होता है / 85. पाहारगसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं? गोयमा ! बीरियसजोगसद्दब्बयाए जाव लाद्ध पडुच्च आहारगसरीरप्पयोगणामाए कम्मस्स उदएणं प्राहारगसरीरप्पयोगबंधे। [85 प्र.] भगवन् ! याहारकशरीर-प्रयोगबन्ध किस कर्म के उदय से होता है ? [85 उ.] गौतम! सवीर्यता, सयोगता और सद्रव्यता, यावत् (आहारक-) लब्धि के निमित्त से, आहारकशरीरप्रयोग-नामकर्म के उदय से आहारकशरीरप्रयोगबन्ध होता है / 86. पाहारगसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कि देसबंधे, सन्वबंधे ? गोयमा ! देसबंधे वि, सम्वबंधे वि। [86 प्र.] भगवन् ! आहारकशरीरप्रयोगबन्ध क्या देशबन्ध होता है, अथवा सर्वबन्ध होता है ? [86 उ.] गौतम ! वह देशबन्ध भी होता है, सर्वबन्ध भी होता है / 87. पाहारगसरीरप्पओगबंधे णं भंते ! कालमो केवचिरं होइ ? गोयमा ! सध्वबंधे एक्कं समयं देसबंधे जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / [87 प्र.] भगवन् ! आहारकशरीर-प्रयोगबन्ध, कालतः कितने काल तक रहता है ? [87 उ.] गौतम ! आहारकशरीरप्रयोगबन्ध का सर्वबन्ध एक समय तक रहता है; देशबन्ध जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः भी अन्तर्मुहूर्त तक रहता है। 88, प्राहारगसरीरप्पयोगबंधंतरं णं भंते ! कालओ केचिरं होइ ? गोयमा ! सम्वबंधंतरं जहन्नेणं अंतो, हुत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं-प्रणंतानो प्रोसप्पिणिउस्सप्पिणीओ कालो, खेत्तमो अणंता लोया; अवड्डपोग्गलपरियटें देसूणं / एवं देस बंधतरं पि / [88 प्र.] भगवन् ! आहारक-शरीर-प्रयोगबन्ध का अन्तर कितने काल का होता है ? [88 उ.] गौतम ! इसके सर्वबन्ध का अन्तर जघन्यतः अन्तमुहर्त और उत्कृष्टत: अनन्तकाल; कालतः अनन्त-उत्सपिणी-अवसपिणीकाल होता है, क्षेत्रतः अनन्तलोक देशोन (कुछ कम) अपार्ध (अर्द्ध) पुद्गलपरावर्तन होता है / इसी प्रकार देशबन्ध का अन्तर भी जानना चाहिए / 86. एएसि गं भंते ! जीवाणं पाहारगसरीरस्स देसबधगाणं, सम्बबधगाणं, प्रबंधगाण य कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org