________________ अष्टम शतक : उद्देशक-९ ] [387 गोयमा ! सम्वत्थोवा जीवा पाहारगसरीरास सव्वबंधगा, देसबंधगा संखेज्जगुणा, प्रबंधगा प्रणतगुणा / [89 प्र.] भगवन् ! आहारकशरीर के इन देशबन्धक, सर्वबन्धक और प्रबन्धक जीवों में कौन किनसे कम, अधिक, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [89 उ.] गौतम ! सबसे थोड़े आहारकशरीर के सर्वबन्धक जीव हैं, उनसे देशबन्धक संख्यातगुणे हैं और उनसे प्रबन्धक जीव अनन्तगुणे हैं / विवेचन-पाहारकशरोरप्रयोगबन्ध का विभिन्न पहलुओं से निरूपण-प्रस्तुत सात सूत्रों (सू. 83 से 16 तक) में आहारकशरीरप्रयोगबन्ध, उसका प्रकार, उसकी कालावधि, उसका अन्तरकाल, उसके देश-सर्वबन्धकों के अल्पबहुत्व का निरूपण किया गया है। प्राहारकशरीरप्रयोगबन्ध के अधिकारी-केवल मनुष्य ही हैं। उनमें भी ऋद्धि (लब्धि)प्राप्त, प्रमत्त-संयत, सम्यग्दृष्टि, पर्याप्त, संख्यातवर्ष की आयु वाले, कर्मभूमि में उत्पन्न, गर्भज मनुष्य ही होते हैं। पाहारकशरोरप्रयोगबन्ध की कालावधि--इसका सर्वबन्ध एक समय का ही होता है, और देशबन्ध जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहुर्त मात्र ही है, क्योंकि इसके पश्चात् आहारकशरीर रहता ही नहीं है / उस अन्तर्मुहूर्त के प्रथम समय में सर्वबन्ध होता है, तदनन्तर देशबन्ध / प्राहारकशरीरप्रयोगबन्ध का अन्तर-माहारकशरीर को प्राप्त हुआ जीव, प्रथम समय में सर्वबन्धक होता है, तदनन्तर अन्तर्मुहुर्त तक आहारकशरीरी रहकर पुनः अपने मूल औदारिकशरीर को प्राप्त हो जाता है। वहाँ अन्तर्मुहुर्त रहने के बाद पुनः संशयादि-निवारण के लिए उसे आहारकशरीर बनाने का कारण उत्पन्न होने पर पुन: प्राहारकशरीर बनाता है; और उसके प्रथम समय में वह सर्वबन्धक ही होता है। इस प्रकार सर्वबन्ध का अन्तर अन्तमुहूर्त का होता है। यहाँ इन दोनों अन्तमुहत्तों को एक अन्तमुहर्त की विवक्षा करके एक अन्तमुहर्त बताया गया है। तथा उत्कृष्ट अन्तर काल की अपेक्षा अनन्तकाल का-अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल का है और क्षेत्र की अपेक्षा अनन्तलोक-अपापुद्गलपरावर्तन का होता है। देशबन्ध के अन्तर के विषय में भी इसी प्रकार समझ लेना चाहिए। प्राहारकशरीर-प्रयोगबन्ध के देश-सर्वबन्धकों का अल्पबहुत्व-याहारकशरीर के सर्वबन्धक इसलिए सबसे कम बताए हैं कि उनका समय अल्प ही होता है। उनसे देशबन्धक संख्यातगुणे इसलिए बताए हैं कि देशबन्ध का काल बहुत है। वे संख्यातगुणे ही होते हैं, असंख्यातगुणे नहीं; क्योंकि मनुष्य ही संख्यात हैं। इस कारण आहारकशरीर के देशबन्धक भी असंख्यातगुणे नहीं हो सकते। उनसे प्रबन्धक अनन्तगण इसलिए बताए हैं कि आहारकशरीर केवल मनुष्यों के, उनमें भी किन्हीं संयतजीवों के और उनके भी कदाचित् ही होता है, सर्वदा नहीं / शेष काल में वे जीव (स्वयं) तथा सिद्ध जीव तथा वनस्पतिकायिक आदि शेष सभी मनुष्येतर जीव पाहारकशरीर के अबंधक होते हैं और वे उनसे अनन्तगुणे हैं।' 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 409 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org