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________________ [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [5-1 प्र.] भगवन् ! असुरेन्द्र असुरराज चमर के सामानिक देव यदि इस प्रकार की महती ऋद्धि से सम्पन्न हैं, यावत् इतना विकुर्वण करने में समर्थ हैं, तो हे भगवन् ! उस असुरेन्द्र असुरराज चमर के त्रास्त्रिशक देव कितनी बड़ी ऋद्धि वाले हैं ? (यावत् वे कितना विकुर्वण करने में समर्थ हैं ?) [5-1 उ.] (हे गौतम ! ) जैसा सामानिक देवों (की ऋद्धि एवं विकूर्वणा शक्ति) के विषय में कहा था, वैसा ही त्रास्त्रिशक देवों के विषय में कहना चाहिए। [2] लोयपाला तहेव / नवरं संखेज्जा दीव-समुद्दा भाणियब्वा / [5-2] लोकपालों के विषय में भी इसी तरह कहना चाहिए / किन्तु इतना विशेष कहना चाहिए कि लोकपाल (अपने द्वारा वैक्रिय किये हुए असुरकुमार देव-देवियों के रूपों से) संख्येय द्वीप समुद्रों को व्याप्त कर सकते हैं / (किन्तु यह सिर्फ उनकी विकुर्वणाशक्ति का विषय है, विषयमात्र है। उन्होंने कदापि इस बिकुर्वणाशक्ति का प्रयोग न तो किया है, न करते हैं और न ही करेंगे।) 6. जति भंते ! चमरस्स असुरिदस्स असुररणो लोगपाला देवा एमहिड्ढीया जाव एवतियं च णं पभू विकुम्वित्तए, चमरस्स गं भंते ! प्रसुरिंदस्स असुररण्णो अग्गमहिसीनो देवोनो केमाहिड्ढीयानो जाव' केवतियं च णं पभू विकुवित्तए ? गोयमा ! चमरस्सणं असुरिंदस्स असुररण्णो अग्गमहिसीनो देवीमो महिढीयानो जाव महाणभागायो। तानो णं तत्थ साणं साणं भवणाणं, साणं साणं सामाणियसाहस्सीणं, साणं साणं महत्तरियाणं, साणं साणं परिसाणं जाव एमहिड्ढीयानो, अन्नं जहा लोगपालाणं (सु. 5 [2]) अपरिसेसं। [6 प्र. भगवन् ! जब असुरेन्द्र असुरराज चमर के लोकपाल ऐसी महाऋद्धि वाले हैं, यावत् वे इतना विकुर्वण करने में समर्थ हैं, तब असुरेन्द्र असुरराज चमर की अग्रमहिषियाँ (पटरानी देवियाँ) कितनी बड़ी ऋद्धि वाली हैं, यावत् वे कितना विकुर्वण करने में समर्थ हैं ? [6 उ.] गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर को अग्नमहिषी-देवियाँ महाऋद्धिसम्पन्न हैं, यावत् महाप्रभावशालिनी हैं / वे अपने-अपने भवनों पर, अपने-अपने एक हजार सामानिक देवों (देवीगण) पर, अपनी-अपनी (सखी) महत्तरिका देवियों पर और अपनी-अपनी परिषदानों पर आधिपत्य (स्वामित्व) करती हुई विचरती हैं; यावत् वे अग्रमहिषियों ऐसी महाऋद्धिवाली हैं। इस सम्बन्ध में शेष सब वर्णन लोकपालों के समान कहना चाहिए / 7. सेवं भंते ! 2 त्ति भगवं दोच्चे गोतमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, 2 जेणेव तच्चे गोयमे वायुभूती प्रणगारे तेणेव उवागच्छति, 2 तच्चं गोयमं वायुभूति प्रणगारं एवं वदासि—एवं खलु गोतमा ! चमरे प्रसुरिंदे असुरराया एमहिड्डीए तं चेव एवं सव्वं अपुट्ठवागरणं नेयध्वं अपरिसेसियं जाव प्रगहिसीणं वत्तव्वया समत्ता। 1. यहाँ 'जाव' पद से 'केमहजुतीयाओं' इत्यादि पाठ स्त्रीलिंग पद सहित समझना / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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