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________________ तृतीय शतक : उद्देशक-१] [ 257 प्रसुरिंदस्स असुररणो एगमेगे सामाणिए देवे देउन्वियसमुग्धातेणं समोहण्णइ, 2 जाव दोच्च पि वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहण्णइ, 2 प णं गोतमा! चमरस्स असुरिंदस्स असुररष्णो एगमेगे सामाणिए देवे केवलकप्पं जंबद्दीवं दोवं बहुहि असुरकुमारेहि देहि देवीहि य पाइण्णं वितिकिण्णं उवत्थडं संथर्ड फुडं अवगाढावगाढं करेत्तए / अदुत्तरं च णं गोतमा ! पभू चमरस्स प्रसुरिंदस्स असुर. रण्णो एगमेगे सामाणियदेवे तिरियमसंखेज्जे दीव-समुद्दे बाहिं असुरकुमारेहि देहिं देवीहि य प्राइण्णे वितिकिण्णे उवत्थडे संबडे फुडे अवगाढावगाढे करेत्तए। एस णं गोतमा ! चमरस्स असुरिदस्स असुररणो एगमेगस्स सामाणियदेवस्स अयमेतारूवे विसए विसयमेत्ते वुइए, जो चेव णं संपत्तीए विकुविसु वा विकुम्वति वा विकुम्विस्सति वा / [4 प्र. भगवन् ! असुरेन्द्र असुरराज चमर जब (इतनी) ऐसी बड़ी ऋद्धि वाला है, यावत् इतनी विकुर्वणा करने में समर्थ है, तब, हे भगवन् ! उस असुरराज असुरेन्द्र चमर के सामानिक देवों की कितनी बड़ी ऋद्धि है, यावत् वे कितना विकुर्वण करने में समर्थ हैं ? [4 उ.] हे गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर के सामानिक देव, महतो ऋद्धि वाले हैं, यावत् महाप्रभावशाली हैं। वे वहाँ अपने-अपने भवनों पर, अपने-अपने सामानिक देवों पर तथा अपनीअपनी अनमहिषियों (पटरानियों) पर आधिपत्य (सत्ताधोशत्व-स्वामित्व) करते हुए, यावत् दिव्य (देवलोक सम्बन्धी) भोगों का उपभोग करते हुए विचरते हैं। ये इस प्रकार की बड़ी ऋद्धि वाले हैं, यावत् इतना विकुर्वण करने में समर्थ हैं 'हे मौतम ! विकुर्वण करने के लिए असुरेन्द्र असुरराज चमर का एक-एक सामानिक देव, वैक्रिय समुद्घात द्वारा समवहत होता है और यावत् दूसरी बार भी वैक्रिय समुद्घात द्वारा समवहत होता है / जैसे कोई युवा पुरुष अपने हाथ से युवती स्त्री के हाथ को (कसकर) पकड़ता (हुअा चलता) है, तो वे दोनों दृढ़ता से संलग्न मालूम होते हैं, अथवा जैसे गाड़ी के पहिये की धुरी (नाभि) पारों से सुसम्बद्ध (आयुक्त संलग्न) होती है, इसी प्रकार असुरेन्द्र असुरराज चमर का प्रत्येक सामानिक देव इस सम्पूर्ण (या पूर्ण शक्तिमान्) जम्बूद्वीप नामक द्वीप को बहुत-से असुरकुमार देवों और देवियों द्वारा पाकीर्ण, व्यतिकीर्ण, उपस्तीर्ण, संस्तीर्ण, स्पृष्ट और गाढ़ावगाढ़ कर सकता है / इसके उपरान्त हे गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर का एक-एक सामानिक देव, इस तिर्यग्लोक के असंख्य द्वीपों और समुद्रों तक के स्थल को बहुत-से असुरकुमार देवों और देवियों से आकीर्ण, व्यतिकीर्ण, उपस्तीर्ण, संस्तीर्ण, स्पृष्ट और गाढ़ावगाढ़ कर सकता है। (अर्थात्-वह इतने रूपों की विकुर्वणा करने में समर्थ है कि असंख्य द्वीप-समुद्रों तक का स्थल उन विकुपित देव-देवियों से ठसाठस भर जाए / ) हे गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर के प्रत्येक सामानिक देव में (पूर्वोक्त कथनानुसार) विकुर्वण करने की शक्ति है, वह विषयरूप है, विषयमात्र-शक्तिमात्र है, परन्तु (उक्त शक्ति का प्रयोग करके उसने न तो कभी विकुर्वण किया है, न हो करता है और न ही करेगा। 5. [1] जइ णं भंते ! चमरस्स असुरिदस्स असुररण्णो सामाणिया देवा एमहिड्ढीया जाव एवतियं च णं पभू विकुवित्तए चमरस्स णं भंते ! असुरिंदस्स असुररण्णो तायत्तीसिया देवा केम हिड्ढीया? तायत्तीसिया देवा जहा सामाणिया तहा नेयव्या / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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