________________ 318 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [5] से य संपढ़िए संपत्ते, थेरा य अमुहा सिया, से णं भंते ! किं पाराहए विराहए ? गोयमा! पाराहए, नो विराहए। [7-5 प्र.] उपर्युक्त अकृत्यसेवी निर्ग्रन्थ ने तत्क्षण आलोचनादि करके स्थविर मुनिवरों के पास आलोचनादि करने हेतु प्रस्थान किया, वह स्थविरों के पास पहुँच गया, तत्पश्चात् वे स्थविर मुनि (वातादिदोषक्श) मूक हो जाएँ, तो हे भगवन् ! बह निनन्थ पाराधक है या विराधक ? [7-5 उ.] गौतम ! वह (निर्ग्रन्थ) आराधक है, विराधक नहीं। [6.8] से य संपट्टिए संपत्ते अघ्पणा य० / एवं संपत्तण वि चत्तारि पालावगा भाणियन्वा जहेव असंपत्तेणं / [7-67 / 8] (उपर्युक्त अकृत्यसेवी मुनि स्वयं पालोचनादि करके स्थविरों की सेवा में पहुँचते ही स्वयं मूक हो जाए, (इसी तरह शेष दो विकल्प हैं-स्थविरों के पास पहुँचते ही वे स्थविर काल कर जाएँ, या स्थविरों के पास पहुँचते ही स्वयं निम्रन्थ काल कर जाए;) जिस प्रकार असंप्राप्त (स्थविरों के पास न पहुंचे हुए) निर्ग्रन्थ के चार आलापक कहे गए हैं, उसी प्रकार सम्प्राप्त निर्गन्थ के भी चार आलापक कहने चाहिए। यावत् (चारों आलापकों में) वह निग्नन्थ पाराधक है, विराधक नहीं। 8. निग्गंथेण य बहिया वियारभूमि वा विहारभूमि वा निक्खतेणं अन्नयरे अकिच्चट्ठाणे पडिसेविए, तस्स णं एवं भवति--इहेव ताव अहं / एवं एत्थ वि, ते चेव अट्ठ पालावगा भाणियन्वा जाव नो विराहए। [8] (उपाश्रय से) बाहर विचारभूमि (नीहारार्थ स्थण्डिलभूमि) अथवा विहारभूमि (स्वाध्यायभूमि) की ओर निकले हुए निर्गन्थ द्वारा किसी अकृत्यस्थान का प्रतिसेवन हो गया हो, तत्क्षण उसके मन में ऐसा विचार हो कि 'पहले मैं स्वयं यहीं इस अकृत्य की आलोचनादि करू, यावत् यथार्ह प्रायश्चित्तरूप तपःकर्म स्वीकार कर लू, इत्यादि पूर्ववत् सारा वर्णन यहाँ कहना चाहिए / यहाँ भी पूर्वोक्त प्रकार से असम्प्राप्त और सम्प्राप्त दोनों के (प्रत्येक के स्थविरमूकत्व, स्वमूकत्व, स्थविरकाल प्राप्ति और स्वकालप्राप्ति, यों चार-चार आलापक होने से) आठ आलापक कहने चाहिए। यावत् वह निग्रन्थ आराधक है, विराधक नहीं; यहाँ तक सारा पाठ कहना चाहिए। 6. निम्गंथेग य गामाणगामं दूइज्जमाणेणं अन्नयरे अकिच्चट्टाणे पडिसेविए, तस्स णं एवं भवति–इहेव ताव अहं० / एस्थ वि ते चेव अट्ठ प्रालावगा भाणियव्वा जाव नो विराहए। [6] ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए किसी निर्ग्रन्थ द्वारा किसी अकृत्यस्थान का प्रतिसेवन हो गया हो और तत्काल उसके मन में यह विचार स्फुरित हो कि 'पहले मैं यहीं इस अकृत्य की आलोचनादि करू; यावत् यथायोग्य प्रायश्चित्तरूप तपःकर्म स्वीकार करू; इत्यादि सारा वर्णन पूर्ववत् समझना चाहिए / यहाँ भी पूर्ववत् पाठ पालापक कहने चाहिए, यावत् वह निम्रन्थ आराधक है, विराधक नहीं, यहाँ तक समग्न पाठ कहना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org