________________ अष्टम शतक : उद्देशक-६ ] [ 316 10. [1] निग्गंथीए य गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुपविट्ठाए अनयरे अकिच्चट्ठाणे पडिसेविए, तीसे णं एवं भवइ-इहेव ताव अहं एयरस ठाणस्स पालोएमि जाव तवोकम्म पडिवज्जामि तम्रो पच्छा पवत्तिणीए अंतियं पालोएस्सामि जाव परिवज्जिस्सामि, सा य संपट्ठिया प्रसंपत्ता, पत्तिणी य प्रमुहा सिया, साणं भंते ! कि आराहिया, विराहिया ? गोयमा ! पाराहिया, नो बिराहिया / [10-1 प्र.] गृहस्थ के घर में आहार ग्रहण करने (पिण्डपात) की बुद्धि से प्रविष्ट किसी निर्गन्थी (साध्वी) ने किसी प्रकृत्यस्थान का प्रतिसेवन कर लिया, किन्तु तत्काल उसको ऐसा विचार स्फुरित हुअा कि मैं स्वयमेव पहले यहीं इस अकृत्यस्थान की आलोचना कर लू, यावत् प्रायश्चित्तरूप तपःकर्म स्वीकार कर ल। तत्पश्चात् प्रवर्तिनी के पास पालोचना कर लगी यावत् तपःकर्म स्वीकार कर लूगी। ऐसा विचार कर उस साध्वी ने प्रतिनी के पास जाने के लिए प्रस्थान किया, प्रवर्तिनी के पास पहुँचने से पूर्व ही वह प्रवर्तिनी (वातादिदोष के कारण) मुक हो गई, (उसकी जिह्वा बंद हो गई-बोल न सकी), तो हे भगवन् ! वह साध्वी पाराधक है या विराधक ? [10-1 उ.] गौतम ! वह साध्वी प्राराधिका है, विराधिका नहीं / [2] साय संपदिया जहा निग्गंथस्स तिण्णि गमा भणिया एवं निग्गंथीए वि तिष्णि पालावगा माणियन्वा जाव प्राराहिया, नो विराहिया। [10-2] जिस प्रकार संप्रस्थित (आलोचनादि के हेतु स्थविरों के पास जाने के लिए रवाना हुए) निर्ग्रन्थ के तीन गम (पाठ) उसी प्रकार सम्प्रस्थित (प्रवर्तिनी के पास आलोचनादि हेतु रवाना हुई) साध्वी के भी तीन गम (पाठ) कहने चाहिए, यावत् वह साध्वी पाराधिका है, विराधिका नहीं, यहाँ तक सारा पाठ कहना चाहिए / 11. [1] से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-पाराहए, नो विराहए? "गोयमा ! से जहानामए केइ पुरिसे एगं महं उणालोमं वा गयलोमं वा सणलोमं वा कप्पासलोमं वा तणसूयं वा दुहा वा तिहा वा संखेज्जहा वा छिदित्ता अगणिकायंसि पक्खिवेज्जा, से नूर्ण गोयमा ! छिज्जमाणे छिन्ने, पक्खिपमाणे पक्खित्ते, उज्झमाणे दड्ढे ति वत्तम्बं सिया? हंता भगवं ! छिज्जमाणे छिन्ने जाव दड्ढे त्ति वत्तव्वं सिया। hon ho k [11-1 प्र.] भगवन् ! किस कारण से प्राप कहते हैं, कि वे (पूर्वोक्त प्रकार के साधु और साध्वी) पाराधक हैं, विराधक नहीं ? [11-1 उ.] गौतम ! जैसे कोई पुरुष एक बड़े ऊन (भेड़) के बाल के या हाथी के रोम के अथवा सण के रेशे के या कपास के रेशे के अथवा तण (घास) के अग्रभाग के दो, तीन या संख्यात टुकड़े करके अग्निकाय (आग) में डाले तो हे गौतम ! काटे जाते हुए वे (टुकड़े) काटे गए, अग्नि में ले जाते हुए को डाले गए, या जलते हुए को जल गए, इस प्रकार कहा जा सकता है ? (गौतम स्वामी-) हाँ भगवन् ! काटते हुए काटे गए, अग्नि में डालते हुए डाले गए और जलते हुए जल गए; यों कहा जा सकता है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org