________________ 320 [व्यास्याप्रज्ञप्तिसूत्र ___ " [2] से जहा वा केइ पुरिसे वत्थं अहतं वा धोतं वा तंतुग्गयं वा मंजिट्ठादोणीए पक्खि. वेज्जा, से नूर्ण गोयमा ! उक्खिप्पमाणे उविखत्ते, पक्खिप्पमाणे पक्खित्ते, रज्जमाणे रत्ते त्ति वत्तवं सिया? हता, भगवं ! उक्खिप्पमाणे उक्खित्ते जाव रत्ते त्ति वत्तवं सिया। से तेणठेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ-पाराहए, नो विराहए"। [11-2] भगवान् का कथन-अथवा जैसे कोई पुरुष बिलकुल नये (नहीं पहने हुए), या धोये हुए, अथवा तंत्र (करघे) से तुरंत उतरे हुए वस्त्र को मजीठ के द्रोण (पात्र) में डाले तो हे गौतम ! उठाते हुए वह वस्त्र उठाया गया, डालते हुए डाला गया, अथवा रंगते हुए रंगा गया, यों कहा जा सकता है ? गौतम स्वामी-] हाँ, भगवन् उठाते हुए वह वस्त्र उठाया गया, यावत् रंगते हुए रंगा गया, इस प्रकार कहा जा सकता है / भगवान्--] इसी कारण से हे गौतम ! यों कहा जाता है कि (आराधना के लिए उद्यत हुए साधु या साध्वी) पाराधक हैं, विराधक नहीं। विवेचन-अकृत्यसेवी किन्तु आराधनातत्पर निग्रंथ-निर्गन्थी की विभिन्न पहलुनों से प्राराधकता की सयुक्तिक प्ररूपणा प्रस्तुत पांच सूत्रों में प्रकृत्यसेवी किन्तु सावधान तथा क्रमश: स्थविरों व प्रवतिनी के समीप आलोचनादि के लिए प्रस्थित साधु या साध्वी की आराधकता का सदृष्टान्त प्ररूपण किया गया है। निष्कर्ष-किसी साधु या साध्वी से भिक्षाचरी जाते, स्थंडिल भूमि या विहारभूमि (स्वाध्यायभूमि) जाते या ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए कहीं भी मूलगुणादि में दोषरूप किसी अकृत्य का सेवन हो गया हो, किन्तु तत्काल वह विचारपूर्वक स्वयं पालोचनादि करके प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध हो जाता है, और अपने गुरुजनों के पास आलोचनादि करके प्रायश्चित्त लेने हेतु प्रस्थान कर देता है, किन्तु संयोगवश पहुँचने से पूर्व ही गुरुजन मूक हो जाते हैं, या काल कर जाते हैं, अथवा स्वयं साधु या साध्वी मुक हो जाते हैं या काल कर जाते हैं, इसी तरह पहुँचने के बाद भी इन चार अवस्था थानों में से कोई एक अवस्था प्राप्त होती है तो वह साध या साध्वी आराधक है, विराधक नहीं। कारण यह है कि उस साधु या साध्वी के परिणाम गुरुजनों के पास आलोचनादि करने के थे, और वे इसके लिए उद्यत भी हो गए थे, किन्तु उपयुक्त 8 प्रकार की परिस्थितियों में से किसी भी परिस्थितिवश वे पालोचनादि न कर सके, ऐसी स्थिति में 'चलमाणे चलिए' इत्यादि पूर्वोक्त भगवत्सिद्धान्तानुसार वे आराधक ही हैं, विराधक नहीं।' दष्टान्तों द्वारा प्राराधकता की पुष्टि-भगवान ने "चलमाणे चलिए" के सिद्धान्तानुसार ऊन. सण, कपास आदि तन्तयों को काटने, आग में डालने और जलाने का तथा नये धोए हए वस्त्र को मंजीठ के रंग में डालने और रंगने का सयुक्तिक दृष्टान्त देकर आराधना के लिए उद्यत साधक को आराधक सिद्ध किया है। 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, 376 (ख) भगवती. हिन्दीविवेचनयुक्त भा. 3, पृ. 1405 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org