________________ 430] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [उ.] हाँ, गौतम ! वे अांखें खोलते और बंद करते हैं। इसी प्रकार सिद्ध के विषय में पूर्ववत् इन दोनों बातों का निषेध समझना चाहिए। 10. एवं आउट्टज्ज वा पसारेज्ज वा।। [10] इसी प्रकार (केवलज्ञानी शरीर को) संकुचित करते हैं और पसारते (फैलाते) भी हैं। 11. एवं ठाणं वा सेज्जं वा निसोहियं वा चेएज्जा / [11] इसी प्रकार वे खड़े रहते (अथवा स्थिर रहते अथवा बैठते या करवट बदलते-लेटते) हैं। वसति में रहते हैं (निवास करते हैं) एवं निषोधिका (अल्पकाल के लिए निवास) करते हैं / (सिद्ध भगदान के विषय में पूर्वोक्त कारणों से इन सब बातों का निषेध समझना चाहिए।) विवेचन केवली एवं सिद्ध के विषय में भाषादि 9 बातों सम्बन्धी प्रश्नोत्तर--प्रस्तुत 5 सूत्रों (सू. 7 से 11 तक) में केवली और सिद्ध के विषय में-भाषण, प्रश्न का उत्तर-प्रदान, नेत्र-उन्मेष, नेत्र निमेष प्राकुंचन, प्रसारण तथा स्थिर रहना, निवास करना, अल्पकालिक निवास करना, इन 9 प्रश्नों का सहेतुक उत्तर क्रमश: विधि-निषेध के रूप में दिया गया है / कठिनशब्दार्थ-भासेज्ज-बिना पूछे बोलते हैं / वागरेन्ज-पूछने पर प्रश्न का उत्तर देते हैं। उम्मिसेज्ज-प्राँखें खोलते हैं / निमिसेज्ज--प्राँखें मूंदते हैं / आउटेज--प्राकुंचन करते, सिकोड़ते हैं। ठाणं खड़े होना या स्थिर होना, बैठना, करवट बदलना या लेटना / सेज्जं–निवास (वसति) निसोहियं-निषोधिका-प्रल्पकालिक निवास (वसति), चेएज्जा-करते हैं।' केवली द्वारा नरकपृथ्वी से लेकर ईषतप्रारभारापृथ्वी तथा अनन्तप्रदेशी स्कन्ध को जानने देखने को प्ररूपणा 12. केवली णं भंते ! इमं रयणप्पभं पुढाँव रयणप्पभपुढवी ति जाणति पासति ? हंता, जाणति पासति / {12 प्र. भगवन् ! क्या केवलज्ञानी रत्नप्रभापृथ्वो को 'यह रत्नप्रभापृथ्वो है' इस प्रकार जानते-देखते हैं ? [12 उ.] हाँ (गौतम ! ) वे जानते-देखते हैं / 13. जहा णं भंते ! केवलो इमं रयणप्यभं पुढवि 'रयणप्पभपुढवो' ति जाणति पासति तहा णं सिद्ध वि रयणप्पमं पुढवि रयणप्पभपुढवो ति जाणति पासति ? हंता, जाणति पासति / [13 प्र. भगवन् ! जिस प्रकार केवलो इस रत्नप्रभापृथ्वी को यह रत्नप्रभापृथ्वो है,' इस प्रकार जानते-देखते हैं, उसी प्रकार क्या सिद्ध भी इस रत्नप्रभापृथ्वी को, यह रत्नप्रभापृथ्वी है. इस प्रकार जानते-देखते हैं ? [13 उ.] हाँ (गौतम ! ) वे जानते-देखते हैं / 1. वियाहपण्णत्तिसुत्त (मूलपाठ-टिप्पण युक्त) पृ. 687 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 657-658 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org