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________________ चौबीसवां शतक : उद्देशक 1] [151 दोहि अंतोमुत्तेहिं अभहियाई, उक्कोसेणं छावाट्ट सागरोवमाइं तिहि पुवकोडीहिं अमहियाई; एवतियं जाव करेज्जा। [सु० 84 तइनो गमओ / [4] वह जीव उत्कृष्ट स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न हो, इत्यादि सब वक्तव्यता, यावत् अनुवन्ध तक पूर्ववत् जानना / भव की अपेक्षा से जघन्य तीन भव और उत्कृष्ट पांच भव ग्रहण करता है / काल की अपेक्षा से--जघन्य दो अन्तमुहूर्त अधिक बाईस सागरोपम और उत्कृष्ट तीन पूर्वकोटि अधिक 66 सागरोपम, इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / [सू. 84 तृतीय गमक] ___85. सो चैव अप्पणा जहन्नकालद्वितीओ जाओ, स च्चेव रयणप्पभपुढविजहन्नकालद्वितीयवत्तव्वता भाणियव्वा जाब भवादेसो त्ति। नवरं पढम संघयणं; नो इथिवेदगा; भवाएसेणं जहन्नेणं तिनि भवग्गहणाई, उषकोसेणं सत्त भवग्गहणाइं; कालाएसेणं जहन्नेणं बावीसं सागरोवमाई दोहि अंतोमुहुतेहिं अभहियाई, उक्कोसेणं छावद्धि सागरोवमाई चहिं अंतोमुहुत्तेहिं अमहियाई; एवतियं जाव करेज्जा / [सु० 85 चउत्थो गमो]। [85] बही (संज्ञी पंचेन्द्रियतियंञ्च) जीव स्वयं जघन्य स्थिति वाला हो और वह सप्तम नरकपृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न हो, तो तत्सम्बन्धी समस्त वक्तव्यता रत्नप्रभापृथ्वी में उत्पन्न होने योग्य जघन्य स्थिति वाले (संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च) की वक्तव्यता के अनुसार यावत् भवादेश तक कहना चाहिए / विशेष यह है कि वह (सप्तम नरकपृथ्वी में उत्पन्न होने वाला) प्रथम संहननी होता है, वह स्त्रीवेदी नहीं होता। भव को अपेक्षा से जघन्य तीन भव और उत्कृष्ट सात भव ग्रहण करता है। काल की अपेक्षा से-जघन्य दो अन्तर्मुहूर्त प्रधिक बाईस सागरोपम और उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक 66 सागरोपम इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है। सू. 85 चतुर्थ गमक] 86. सो चेव जहनकालद्वितीएसु उक्वन्नो, एवं सो चेव चउत्थगमनो निरवसेसो भाणियन्दो जाव कालादेसो त्ति / [सु० 86 पंचमो गमो] / [86] वही (जघन्य स्थिति बाला संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यच्चयोनिक जीव) जघन्य स्थिति वाले सप्तम नरकपृथ्वी के नरयिकों में उत्पन्न हो तो उस सम्बन्ध में समग्र चतुर्थ गमक यावत् कालादेश तक कहना चाहिए / [सू. 86 पंचम गमक] 87. सो चैव उक्कोसकालद्वितीएसु उववन्नो, स च्चेव लद्धो जाव अणुबंधो त्ति / भवाएसेणं जहन्नेणं तिनि भवग्गहणाइं, उक्कोसेणं पंच भवग्गहणाई। कालाएसेणं जहन्नेणं तेत्तीसं सागरोवमाई दोहिं अंतोमुहुत्तेहि प्रभहियाई, उक्कोसेणं छावटि सागरोवमाई तिहिं अंतोमुत्तेहि प्रभाहियाई, एवतियं कालं जाव करेज्जा / [सु० 87 छट्टो गमओ] / 87] वही (जघन्य स्थिति वाला संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च) उत्कृष्ट स्थिति वाले सप्तम नरकपृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न हो तो, इस सम्बन्ध में, यावत् अनुबन्ध तक पूर्वोक्त वक्तव्यता जाननी चाहिए / भव की अपेक्षा से-जघन्य तीन भव और उत्कृष्ट पाँच भव ग्रहण करता है तथा काल को अपेक्षा से जघन्य दो अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम और उत्कृष्ट तीन अन्तर्मुहूर्त अधिक 66 सागरोपम; काल तक यावत् गमनागमन करता है / [सू. 87 छठा गमक] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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